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[ मूलाचारे वाक्करणोन्मुक्त शेषाण्यप्युच्चार्य षष्ठं शीलं ब्रूयात् । तिस्रो गुप्ती: पंक्त्याकारेण व्यवस्थाप्य तत उध्वं त्रीणि करणानि पंक्त्याकारेण स्थापनीयानि तत ऊवं आहारादिसंज्ञा: संस्थाप्य तत: पंचेन्द्रियाणि ततः पृथिव्यादयः कायास्ततश्च श्रमणधर्माः स्थाप्याः। एवं संस्थाप्य पूर्वोक्तक्रमेण शेषाणि शीलानि वक्तव्यानि यावत्सर्वेऽक्षा अचलं स्थित्वा विशुद्धा भवन्ति तावदष्टादशशीलसहस्राण्यागच्छन्तीति । अथवा मनोगुप्ते मुनिवृपभे इत्यादि तावदुच्चार्य यावद्दशप्रकारश्रमणधर्मान्तेऽक्षस्तिष्ठति तदाऽनलं स्थित्वा विशुद्धेऽक्षे ततः शेषा अप्यक्षा अनेन क्रमेण तं प्राप्य स्थापयितव्या यावन्मनो गुप्यक्षः कायगुप्तो निश्चलः स्थितस्ततोऽष्टादशशीलसहस्राणि मुनिवृषभस्य पूर्णानि भवन्तीति । अथवा मनोगुप्ति ध्र वा व्यवस्थाप्य मनःकरणादिना सह षट्सहस्राणि शीलान्युत्पाद्य ततः शेषेषु भंगेष्वचलं स्थित्वा विशुद्धेषु मनोगुप्तिविशुद्धा भवति ततः पुनर्वाग्गुप्ति ध्रुवां कृत्वा षटसहस्राणि शीलानामुत्पादनीयानि ततः सर्वे भंगा अचलं तिष्ठन्ति ततो वाग्गुप्तिर्विशुद्धा भवति ततः कायगुप्ति ध्र वां कृत्वा षट्सहस्राणि शीलानामुत्पादनीयानि ततः सर्वे भंगा अचलं तिष्ठन्ति कायगुप्तिश्च विशुद्धा भवति शीलानां चाष्टादशसहस्राणि संपूर्णानि भवन्ति । एवमेकैकं स्थिरं कृत्वा भंगानामुत्पादनक्रमो वेदितव्य इति ॥१०२३-१०२४॥
इदानीं गुणानामुत्पत्तिकारण क्रमं प्रतिपादयन्नाह
अशुभ व्यापार से रहित, शुद्ध भाव से संयुक्त, आहार संज्ञा से विरत, स्पर्शनेन्द्रिय से संवृत, पृथिवीकाय संयम से युक्त और क्षमागुण से संयुक्त मुनि के शील का छठा भंग होता है। इसी तरह शील के अठारह हज़ार भंग होते हैं।
तीन गुप्तियों को पंक्ति के आकार से व्यवस्थापित करके उसके ऊपर तीन करण को पंक्ति के आकार से स्थापित करना चाहिए । पुनः उसके ऊपर आहार आदि संज्ञाओं को स्थापित करके, उसके ऊपर पाँचों इन्द्रियों को, उसके ऊपर पृथिवी आदि दश कायों को तथा उसके ऊपर दश श्रमण धर्मों को स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार से स्थापित करके पूर्वोक्त क्रम से शेष सर्व शीलों को कहना चाहिए । जब तक सर्व अक्ष अचल रहकर विशुद्ध होते हैं तब तक अठारह शील के भेदों का आगमन होता है।
अथवा 'मनोगुप्ति से गुप्त' इत्यादि रूप से उच्चारण करके जब श्रमण के दश धर्म के अन्त में अक्ष स्थिर होता है तब अचल को स्थिर करके अक्ष के विशुद्ध होने पर, उसके बाद शेष अक्ष भी इसी क्रम से प्राप्त करके तब तक स्थापित करना चाहिए कि जब तक मनोगुप्ति का अक्ष कायगुप्ति पर जाकर निश्चल स्थित न हो जाए। तब मुनिश्रेष्ठ के अठारह हज़ार शील पूर्ण होते हैं।
अथवा मनोगप्ति को ध्रुव स्थापित करके मनःकरण आदि के साथ छह हजार शीलों को उत्पन्न करके पुनः शेष भंगों में अचल रहकर विशुद्ध होने पर मनोगुप्ति विशुद्ध होती है। पुनः वचनगुप्ति को ध्रुव करके छह हज़ार शील के भेद उत्पन्न करना चाहिए। जब सभी भंग अचल ठहरते हैं तो वचनगुप्ति विशुद्ध हो जाती है । इसके अनन्तर कायगुप्ति को ध्रुव करके छह हजार शील के भेद उत्पन्न कराना चाहिए। जब सभी भंग अचल रहते हैं तब कायगुप्ति विशुद्ध होती है। इस तरह शीलों के अठारह हज़ार भेद परिपूर्ण हो जाते हैं । इस विधि से एक-एक को स्थिर करके भंगों का उत्पादनक्रम जानना चाहिए।
अब गुणों की उत्पत्ति का कारणभूत क्रम कहते हैं
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