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________________ कोलगुणाधिकारः] [११ मणगुत-मनसा गुप्तो मनोगुप्तस्तस्य तस्मिन्वा मनोगुप्तस्य मनोगुप्ते । मुणिवसहे- मुनिवृषभस्य मुनिवृषभे वा, मणकरणोम्मुक्कसुद्ध भावजुदे--मनःकरणोन्मुक्तशुद्धभावयुतः, मनःकरणोन्मुक्तश्चासौ शुद्धभावश्च तेन युतः मनःकरणोन्मुक्तशुद्धभावयुतस्तस्य मनःकरणोन्मुक्तशुद्धभावयुतस्य मनःकरणोन्मुक्तशुद्धभावयुते वा। माहारसणविरदे-आहारसंज्ञाया विरत आहारसंज्ञाविरतस्तस्य आहारसंज्ञाविरतस्य आहारसंज्ञाविरते वा। फासिदियसंपुडे-स्पर्शेनेन्द्रियं संवृतं यस्यासो स्पर्शनेन्द्रियसंवृतस्तस्य स्पर्शनेन्द्रियसंवतस्य स्पर्शनेन्द्रियसंवृते वा। घेव-निश्चयेन । पुढवीसंजमजुत्ते-पृथिवीसंयमेन युक्तः पृथिवीसंयमयुक्तस्तस्य पृथिवीसंयमयुक्तस्य पृथिवीसंयमयुक्त वा। खंतिगुणसंजुवे-क्षांतिगुणेन संयुक्तः क्षान्तिगुणसंयुक्तस्तस्य क्षान्तिगुणसंयुक्तस्य क्षांतिगुणसंयतवा। पलमसील-प्रथमं शीलं तस्येत्थंभूतस्य मुनिवृषभस्येत्थंभूते वा मूनिवषभे प्रथमं शीलमचलं स्थिररूपं तिष्ठति । शुद्धे चारित्राढ्ये मुनी शुद्धस्य चारित्राढ्यस्य मुनेर्वेति सम्बन्धः । यतो गुप्तिभिर्गुप्तोऽशुभपरि II. मैविभक्तः संज्ञादिभिश्च रहितः संयमादिसहितोऽत एव शुद्धः। तहेव-तथैव तेनैव प्रकारेण अनेन वा प्रकारे। सेसाणि-शेषाण्यपि द्वितीयादीनि शीलानि । याणि-ज्ञातव्यानि। अथवा विशुद्धषु भंगेषु यावदचलं तिष्ठत्यक्षः, तथा वाग्गुप्ते मुनिवृषभे मनःकरणोन्मुक्तशुद्धभावयुक्त आहारसंज्ञाविरते स्पर्शनेन्द्रियसंवृते पृथिवीसंयमयुक्ते क्षान्तिगुणसंयुक्त च शुद्धे मुनो द्वितीयं शीलं तिष्ठति । तथा कायगुप्ते मुनिवृषभे एवं शेषाण्यच्चारणविधानान्युच्चार्य तृतीयं शीलं व्रतपरिरक्षणमचलं तिष्ठति । विशुद्ध तत आदि गते अक्षे एवमुच्चारणा कर्तव्या : मनोगुप्ते मुनिवृषभे वाक्करणोन्मुक्तशुद्ध भावयुते आहारसंज्ञाविरते स्पर्शनेन्द्रियसंवृते पथिवीसंयमयुक्ते क्षान्तिगुणसंयुक्ते च मुनिवृषभे चतुर्थशीलम् । तथा वाग्गुप्ते मुनिवृषभे वाक्करणोन्मुक्तशुद्धभावयुक्त आहारसंज्ञाविरते स्पर्शनेन्द्रियसंवृते पृथिवीसंयमयुक्ते क्षान्तिगुणसंयुक्ते च मुनिवृषभे पंचमं शीलम । तथा कायगुप्ते आचारवृत्ति-जो मुनिपुंगव मनोगुप्ति से सहित हैं, मन के अशुभ व्यापार से रहित शुद्धभाव के धारक हैं, आहार संज्ञा से विरत हैं, स्पर्शनेन्द्रिय का विरोध करनेवाले हैं, पथिवी. कायिक जीवों की दयापालन रूप संयम से संयुक्त हैं, और क्षमा गुण से युक्त हैं--ऐसे शुद्ध चरित्र से युक्त मुनि के प्रथम शील निश्चल और दृढ़ रहता है। शील का यह प्रथम भंग हुआ । गुप्ति से गप्त, अशुभ परिणामों से विमुक्त, संज्ञाओं से रहित, संयमादि से सहित मुनि ही शुद्ध कहलाते हैं क्योंकि व्रतों के रक्षण का नाम ही शील है सो उन्हीं के पास रहता है। इसी प्रकार से द्वितीय, तृतीय आदि शेष भंग भी समझना चाहिए । जैसे-जो मनिराज वचनगुप्ति से युक्त, मन के अशुभ व्यापार से रहित, शुद्धभाव से सहित, आहार संज्ञा से विरत, स्पर्शनेन्द्रिय से संवत, पृथिवीकायिक संयम से संयुक्त और क्षमागुण से समन्वित हैं उन शुद्ध मुनि के शील का द्वितीय भंग निश्चल और दृढ़ रहता है । कायगुप्ति से युक्त, मन के करण से रहित, शुद्धभाव से सहित, आहार संज्ञा से रहित, स्पर्शनेन्द्रिय से संवृत, पृथिवीकाय के संयम से समन्वित और क्षमागुण से युक्त मुनि के शील का तृतीय भंग होता है। पुनः आदि अक्ष पर आने पर इस तरह उच्चारण करना चाहिए। मनोगप्ति से युक्त, वचन के अशुभ व्यापार रूपकरण से मुक्त, शुद्ध भाव सहित, आहार संज्ञा से रहित, स्पर्शनेन्द्रिय के विरोध से सहित, पृथिवी संयम से युक्त और क्षमागण से संयुक्त मुनि के शील का चतुर्थ भंग होता है । वचनगुप्ति से युक्त, वचन के अशुभ व्यापार रूप करण से मुक्त, शुद्ध भाव से युक्त, आहार संज्ञा से विरत, स्पर्शनेन्द्रिय से संवृत, पृथ्वी संयम से युक्त और क्षमा गुण से सहित मुनि के शील का पांचवां भंग होता है । तथा कायगुप्ति से गुप्त, वचन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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