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________________ १५० ] [ मूलाचारे लाघव --- लघोर्भावो लाघवं अनतिचारत्वं शौचं प्रकर्ष प्राप्तो लोभनिवृत्तिः । तव - तपः कर्मक्षयार्थं तप्यन्ते शरीरेन्द्रियाणि तपस्तद्वादशविधं पूर्वोक्तमव सेयम् । संजमो - संयमो धर्मोपबं हणार्थं समितिषु वर्तमानस्य प्राणीन्द्रियदयाकषायनिग्रहलक्षणः । अचिणवानास्य किंचनास्त्यकिं चनोऽकिंचनस्य भाव आकिंचन्यमकिंचनता उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसंबन्ध निवृत्तिः । तह होदि - तथा भवति तथा तेनैव प्रकारैण दशब्रह्मपरिहारेण, बंभवेरं - ब्रह्मचयं अनुज्ञातांगनास्मरणकथाश्रवणस्त्रीसंसक्तशयनादिवर्जनं स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्यर्थो वा गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् । सच्चं - सत्यं परोपतापादिपरिवर्जितं कर्मादानकारणान्निवृत्तं साधुवचनं सत्यम् । धागो - त्यागः संयतस्य योग्यज्ञानादिदानं त्यागः । चशब्दः समुच्चयार्थः । वस धम्मा-दशैते धर्मा दशप्रकारोऽयं श्रमणधर्मो व्याख्यात इति ।। १०२२|| बोलना । शीलानामुत्पत्तिनिमित्तमक्षसंक्रमेणोच्चारणक्रममाह - आर्जव - ऋजु का भाव आर्जव है, अर्थात् मन, वचन और काय की सरलता । लाघव- लघु का भाव लाघव है, अर्थात् व्रतों में अतिचार नहीं लगाना । इसी का नाम शौच है । प्रकर्षता को प्राप्त हुए लोभ को दूर करना ही शौच है । तप - कर्म के क्षय हेतु शरीर और इन्द्रियों को जो तपाया जाता है उसे तप कहते हैं । इसके बारह भेद हैं जिनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। संयम-धर्म की वृद्धि के लिए समितियों में प्रवर्तमान मुनि के प्राणियों की दया तथा इन्द्रिय और कषायों का निग्रह होना संयम है । आकिंचन्य - जिसका किंचन - किंचित् भी नहीं है वह अकिंचन है । अकिंचन का भाव आकिंचन्य है । अर्थात् अपने से अत्यर्थ सम्बन्धित भी शरीर आदि में संस्कार को दूर करने के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय का का त्याग होना । ब्रह्मचर्य - दश प्रकार के अब्रह्म का परिहार करना ब्रह्मचर्य है । अर्थात् अनुज्ञात स्त्री के स्मरण का, स्त्रियों की कथा सुनने का, स्त्रियों से संसक्त शयन आदि का त्याग करना और स्वतन्त्र प्रवृत्ति का त्याग करना अथवा गुरु के संघ में वास करना । सत्य-पर के उपताप से रहित और कर्मों के ग्रहण के कारणों से निवृत ऐसे साधुवचन मणगुत्ते मुणिवस मणकरणोम्मुक्कसुद्धभावजुवे । आहारसण्णविरदे फासिदियसंपुडे चेव ।। १०२३॥ पुढवीसंजमजुत्ते खंतिगुणसंजुदे पढमसीलं । अचलं ठादि विसुद्धे तहेव सेसाणि णेयाणि ॥। १०२४॥ Jain Education International त्याग - संयत के योग्य ज्ञान आदि का दान देना । ये दश धर्म श्रमणधर्म कहलाते हैं । शीलों की उत्पत्ति के निमित्त अक्ष के संक्रमण के द्वारा उच्चारणक्रम कहते हैं गाथार्थ – मनोगुप्तिधारी, मनःकरण से रहित शुद्ध भाव से युक्त, आहार-संज्ञा से विरत, स्पर्शनेन्द्रिय से संवृत, पृथिवी संयम से युक्त और क्षमा-गुण से युक्त, विशुद्ध मनिवर के प्रथमशील अचल होता है उसी प्रकार से शेष भंग जानना चाहिए । १०२३, १०२४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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