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________________ शीलगुणाधिकारः ] [ १७६ कायिकाश्चैव । पृथिवी कायो विद्यते येषां ते पृथिवीकायिकाः, आपः कायो विद्यते येषां ते अप्कायिकाः, तेजः कायो विद्यते येषां ते तेजःकायिकाः, मारुतः कायो विद्यते येषां ते मारुतकायिकाः, प्रत्येकः कायो विद्यते येषां ते प्रत्येककायिकाः पूगफलनालिकेरादयः, अनन्त कायो विद्यते येषां तेऽनन्तकायिका गुडूचीमूलकादयः, चशब्द उक्तसमुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणार्थः । पृथिवीकायिकादयः स्वभेदभिन्ना बादरा: सूक्ष्माः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्चैवेति । विगतिगचपंचेंदिय- इन्द्रियशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः, श्रीन्द्रिया मत्कुणादयः, चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयः, पञ्चेन्द्रिया मंडुकादयः । भोम्मादि-भूम्यादयः । हवंति--भवन्ति । वस–दश । एवे-एते पृथिवीकायिकादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्ता दशैव भवन्ति नान्य इति ॥१०२१॥ श्रमणधर्मस्य भेदं स्वरूपं च प्रतिपादयन्नाह खंती मद्दव अज्जव लाघव तव संजमो अंकिचणदा। तह होदि बंभचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा ॥१०२२॥ खंती-उत्तमक्षमा शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपयतस्तीर्थयात्राद्यर्थ वा पर्यटतो यतेर्दुष्टजनाक्रोशोत्प्रहसनावज्ञाताडनमर्त्सनशरीरव्यापादनादीनां सन्निधाने 'स्वान्ते कालुष्यानुत्पत्तिःक्षान्ति । महवमदोर्भावो मार्दवं जात्यादिमदावेशादभिमानाभावः । अज्जव-ऋजोर्भाव आर्जवं मनोवाक्कायानामवक्रता है वे वायुकायिक होते हैं। ऐसे ही प्रत्येक अर्थात् एक जीव के प्रति कारणभूत जो शरीर उस निमित्तक पुद्गलसमूह को प्रत्येक कहते हैं। प्रत्येकशरीर ही है जिनका वे प्रत्येकवनस्पतिकायिक हैं; जैसे सुपारीफल, नारियल आदि के वृक्ष । अनन्त हैं शरीर जिनके वे अनन्तकायिक वनस्पति हैं। जैसे गुरुच, मूली आदि । इन पृथिवीकायिक आदि में बादर और सूक्ष्म ऐसे दो-दो भेद हैं तथा एक-एक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद भी हो जाते हैं। कृमि आदि द्वीन्द्रिय, खटमल आदि त्रीन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय और मेढक आदि जीव पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। इस तरह पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पति, साधारणवनस्पति. द्वीन्द्रिय, तीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये दश हैं। श्रमणधर्म के भेद और स्वरूप को कहते हैं गाथार्थ-क्षमा, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ये दश धर्म हैं ॥१०२२॥ आचारवृत्ति-शान्ति-उत्तम क्षमा अर्थात् शरीर की स्थिति के कारणभूत आहार का अन्वेषण करने के लिए परगृह में जाते हुए अथवा तीर्थयात्रा आदि के लिए भ्रमण करते हुए मुनि को नग्न देखकर दुष्टजन अपशब्द कहें, उनकी हँसी करें, तिरस्कार करें, अथवा ताडना या भर्त्सना करें अथवा उनके शरीर को पीडा आदि पहुंचाएँ-इन सभी कारणों के मिलने पर भी मुनि के मन में कलुषता का न होना क्षमा है। ___ मार्दव-मृदु का भाव मार्दव है, अर्थात् जाति आदि मदों के आवेश से अभिमान नहीं करना। १. ग स्वान्तः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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