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[ मूलाधारे तिण्हं-त्रयाणां मनोवाक्कायानां, सुहसंजोगो-शुभेन संयोगः शुभसंयोगः पापक्रियापरिहारपूर्वकशुभकर्मादातनिमितव्यापारः सर्वकर्मक्षयनिमित्तवाग्गुप्तिर्योग इत्युच्यते । करणं च-करणं क्रिया परिणामो वा तेषां मनोवाक्कायानां योऽयमशुभेन संयोगस्तत्करणं पापक्रियापरिणामः पापादाननिमित्तव्यापारव्याहारीच करणमित्युच्यते । आहारावी-आहारादय आहारभयमैथुनपरिग्रहाः, सण्णा-संज्ञा अभिलाषाः, चतुर्विधाशनपानखाद्यस्वाद्यान्याहारः, भयकर्मोदयाच्छरीरवाङ्मनःसम्बन्धिजीवप्रदेशानामाकुलता भयं, स्त्रीपुंसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोःपरस्परं संदर्शनं प्रतीच्छामैथुन, गोमहिषीमणिमौक्तिकादीनां चेतनाचेतनानां बाह्यानां आभ्यन्तराणां च रागादीनामुपधीनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणा व्यापतिः परिग्रहः, आहारसंज्ञा भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा चेति। फासादिय-स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि ज्ञेयानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षःश्रोत्राणीन्द्रियाणि ज्ञातव्यानीति ॥१०२०॥ पृथिव्यादीनां भेदं स्वरूपं च प्रतिपादयन्नाह
पुढविदगागणिमारुवपत्तेयअणंतकायिया चेव ।
विगतिगचदुपर्चेदिय भोम्मादि हवंति दस एदे॥१०२१॥ पुढवि-पाथवी । वग-आपो जलं । अगणि-अग्निः । मार-मारुतः वातः। पत्तेय-प्रत्येक एकं जीवं प्रति कारणं शरीरहेतुपुद्गलप्रचयः प्रत्येकमसाधारणम् । अणंत-अनन्तः साधारणम् । कायिया चेव
आचारवृत्ति-मन, वचन, काय इन तीनों का शुभ कार्यों से संयोग होना अर्थात् पापक्रिया के परिहारपूर्वक शुभकर्मों के ग्रहण निमित्तक व्यापार का होना योग है । अथवा सर्वकर्मों के क्षय हेतुक वचनगुप्ति का नाम योग है। क्रिया अथवा परिणाम का नाम करण है। इन मन, वचन और काय का जो अशुभ क्रिया या परिणाम के साथ संयोग है वह करण है जो कि पापक्रिया परिणाम रूप है । अथवा पापकर्म के ग्रहण निमित्त जो व्यापार और वचन है वह करण है । अभिलाषा का नाम संज्ञा है। चार प्रकार के अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आदि आहार कहलाते हैं । भय कर्म के उदय से शरीर, वचन और मन सम्बन्धी जीव के प्रदेशों में जो आकुलता होती है उसका नाम भय है । चारित्र मोहनीय के उदय से राग-भाव से सहित हुए स्त्री-पुरुष की जो परस्पर में स्पर्श की इच्छा होती है उसका नाम मैथुन है। गाय, भैंस, मणि, मोती आदि चेतन-अचेतनं बाह्य वस्तुओं के संरक्षण, अर्जन, संस्कार आदि लक्षण-व्यापार का नाम बाह्य परिग्रह है तथा राग-द्वेष आदि परिणामों का होना अभ्यन्तर परिग्रह है। इनको अभिलाषा होना ही आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा कहलाती हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ हैं।
पृथ्वी आदि के भेद और स्वरूप को कहते हैं
गाथार्थ-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति और अनन्त वनस्पतिकायिक तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये दश 'भू आदि' होते हैं ॥१०२१॥
आचारवृत्ति-पृथिवी ही जिनकी काय है उन्हें पृथिवीकायिक कहते हैं । जल ही जिन की काय है वे जलकायिक, अग्नि ही जिनकी काय है वे अग्निकायिक और वायु ही जिनका शरीर १. कनिमित्ता। .
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