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विशारद हैं, कीर्तिमान हैं, क्रिया और आचरण से युक्त हैं, जिनके वचन प्रमाणीभूत हैं और जिन्हें सब मानते हैं ऐसे आचार्य होते हैं।"
'भगवती आराधना' में भी ऐसे ही संघ की व्यवस्था मानी गई है। एक संघ के आचार्य अपनी सल्लेखना हेतु अपने योग्य शिष्य पर संघ का भार छोड़कर अर्थात् उन्हें आचार्य बना कर आप स्वयं द्वितीय संध में प्रवेश करते हैं कि जिससे शिष्यों के मोह आदि के निमित्त से उनकी सल्लेखना में विघ्न न मा जावे । तथा वहाँ पर भी वे आचार्य अड़तालीस मुनि के साथ उनकी सल्लेखना कराते हैं। कम से कम दो मनि सल्लेखनारत मुनि की परिचर्या के लिए अवश्य होना चाहिए ऐसा ही वहां विधान किया गया है।
संघ-परम्परा
भगवान महावीर के समय से ही आचार्य-परम्परा चली आ रही है । यथा-"वर्धमान तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुए, इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। उन गोतम स्वामी ने दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहाचार्य को दिया । लोहाचार्य ने जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटीक्रम से तीनों ही सफलश्रुत के धारक कहे गये हैं । यदि परिपाटीक्रम की अपेक्षा न की जाये तो संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए हैं। गौतमस्वामी, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी-ये तीनों केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुए हैं । इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भाद्रबाहु-ये पांचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के पाठी हुए । तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोण्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, द्य तिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन --ये ग्यारह ही साधु परिपाटी क्रम से ग्यारह अंग और दशपूर्व के धारी हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्र वसेन, कंसाचार्य-ये पांचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से ग्यारह अंगों और चौदहपूर्वो के एक देश के धारक हुए। तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य-ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग तथा पूर्वो के एक देश के धारक हुए । इसके बाद सभी अंग और पूर्वो का एक देश (ज्ञान) आचार्यपरम्परा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।"२
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धरसेनाचार्य पर्यन्त श्रुतपरम्परा और आचार्य परम्परा का व्युच्छेद नहीं हुआ है, क्योंकि "आइरियपरम्पराए आगच्छमाणो" यह वाक्य स्पष्ट रूप से आचार्य-परम्परा को घोषित कर रहा है।
पुन: अपना यह श्रृतज्ञान श्री धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त और भूतबलि महामुनियों को दिया, जिन्होंने 'षट्खण्डागम' सूत्र में उसे लिपिबद्ध किया है।
आचार्य परम्परा
'प्रथम शुभचन्द्र की गुर्वावली' में श्री गुप्तिगुप्त अर्थात् अर्हद्वलि आचार्य से लेकर उन-उन के पट्र पर आसीन होने वाले आचार्यों की नामावली दी गई है, जिसमें १०२ आचार्यों के नाम हैं। यथा
१. मूलाचार, ०४ २. "तदो सम्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरियपरम्पराए आगच्छमाणो घरसेणाइरियं संपत्तो।"
-धवला पु० १, पृ० ६६-६८
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