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________________ ne उपोधात ] [ ७ स्थविरकल्पो-जो जिन मुद्रा के धारक हैं, संघ के साथ-साथ विहार करते हैं, धर्म प्रभावना तथा उत्तमशिष्यों के रक्षण में और वृद्ध साधुओं के रक्षण व पोषण में सावधान रहते हैं, महर्षिगण उन्हें स्थविरकल्पी कहते हैं । इस भीषण कलिकाल में हीन संहनन होने से ये साधु स्थानीय नगर ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं । यद्यपि यह काल दुस्सह है, संहननहीन है, मन अत्यन्त चंचल है, और मिथ्यामत सारे संसार में विस्तीर्ण हो गया है तो भी ये साधु संयम पालन में तत्पर रहते हैं।" 1 जो कर्म पूर्व काल में हजार वर्ष में नष्ट किये जाते थे, वे कलियुग में एक वर्ष में ही नष्ट किये जा सकते हैं । इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तम संहननधारी मुनि ही जिनकल्पी कहलाते हैं । इस पंचम काल में उत्तम संहनन का अभाव है। तीन हीन संहनन ही होते हैं। अतः आज के युग में जिनकल्पी मुनि न होकर स्थविरकल्पी ही होते हैं। श्री कुन्दकुन्ददेव आदि भी जिनकल्पी नहीं थे, क्योंकि न इनके उत्तम संहनन ही था, न ये ग्यारह अंगों के ज्ञाता ही थे, न ये छह-छह मास कायोत्सर्ग में लीन हो सकते थे और न ही सदा गिरि, गुफा, पर्वतों पर ही रहते थे क्योंकि इस स्थिति में ग्रन्थों के लेखन आदि का कार्य सम्भव नहीं हो सकता था । श्री कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में भी आचार्य को संघ संचालन का आदेश दिया है। यया "जो अरहन्तादि की भक्ति, आचार्य आदि के प्रति वात्सल्य पाया जाता है, वह शुभयुक्त चर्या भोपयोगी मुनि का चारित्र है। वन्दना नमस्कार आदि करना, विनय प्रवृत्ति करना, उनकी थकान दूर करना सरागचर्या में निषिद्ध नहीं है। I अनुग्रह की 'इच्छा से दर्शन और ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का ग्रहण करना और उन का पोषण करना और जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना, यह सरागी मुनियों की पर्या है जो मुनि नित्य हो चातुर्वर्ण संघ का जीवों की विराधना से रहित उपकार करता है वह राग की प्रधानता वाला है। रोगी, गुरु, बाल या बुद्ध श्रमणों की वैयावृत्य के लिए शुभोपयोगी मुनि को लौकिक जन से वार्तालाप करने का निषेध नहीं है। द्योतक है। यहाँ पर 'शिष्यों का ग्रहण करना और उनका पोषण करना' यह आदेश ही संघ के संचालन का मूलाचार में तो आचार्यों के लिए संघ बनाने का आदेश दिया ही है । यथा "जो शिष्यों का संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल हैं, सूत्र और उसके अर्थ में १. सांप्रतं कलिकाले स्मिन, हीनसंहननत्वतः ।। स्थानीयनगर-ग्रामजिनसद्मनिवासिनः ॥ ११६ ॥ कालोऽयं दुसहो हीनं शरीरं सरलं मनः । मिष्यामतमतिव्याप्तं तथापि संयमोद्यता ॥१२०॥ Jain Education International भद्रबाहुचरित, परिच्छेद ४ २. प्रवचनसार गा० २४६, २४७, २४८, २४६, २५३ ""सगणावदेसो सिस्सम्हणं च पोसणं तेसि ॥। २४७ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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