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________________ १७.] [ मूलाचारे पापस्योपस्थापना विद्यते मोक्षमार्गे तस्य संस्थितिरवश्यम्भाविनीति। एवमप्कायिकतेजःकायिकवायुकायिकवमस्पतिकायिकत्रसकायिकांस्तदाश्रितांश्च यः श्रद्दधाति मन्यतेऽभ्युपगच्छति तस्योपलब्धपुण्यपापस्योपस्थापना विद्यत इति ॥१०१२॥ न पुनः श्रद्दधाति तस्य फलमाह ण सद्दहदि जो एवे जीवे पुढविदं गये। ___ स गच्छे दिग्घमखाणं लिगत्थो वि हु दुम्मदी॥१०१३॥ न श्रद्दधाति नाभ्युपगच्छति य एतान् जीवान् पृथिवीत्वं गतान् पृथिवीकायिकान तदाश्रितांश्च स गच्छेदीर्घमध्वानं दीर्घसंसारं लिंगस्थोऽपि नाग्न्यादिलिंगसहितोऽपि दुर्मतिर्यत इति । एवमप्कायिकतेजःकायिकवायुकाविकवनस्पतिकायिकत्रसकायिकान् तदाश्रितांश्च यो न श्रद्दधाति नाभ्युपगच्छति स लिंगस्थोऽपि मोक्षमार्ग में स्थिति अवश्यभाविनी है। इसी प्रकार से जो जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक वनस्पतिकायिक और सकायिक जीवों को तथा उनके आश्रित जीवों को स्वीकार करता है, पुष्पपाप के जानकार उस साधु की मोक्षमार्ग में स्थिति रहती है। पुनः जो इन पर श्रद्धान नहीं करता है उसका फल बताते हैं गाथार्थ-जो पृथ्वी पर्याय को प्राप्त इन जीवों का श्रद्धान नहीं करता, मुनि वेषधारी होकर भी वह दुर्मति दीर्घ संसार को पाता है ॥१०१३॥ आचारवृत्ति-जो पृथ्वीकायिक पर्याय को प्राप्त जीवों को और उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता है वह नग्नत्व आदि लिंग को धारण करते हुए भी दुर्मति है, अतः दीर्घ मार्ग-संसार को प्राप्त करता है। इसी प्रकार से जो जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों को तथा उनके आश्रित जीवों को स्वीकार नहीं करता - फलटण से प्रकाशित मूलाचार में निम्नलिखित पाँच गाथाएँ अधिक हैं। जो आउकाइगे जोवे अइसद्दहवि जिणेहि पष्णते। उवलपुण्णपावस्स तस्सववट्ठावणा अस्थि ।। जो तेउकाइगे जीवे अइसद्दति जिणेहिं पण्णते। उपलबपुण्ण पावास्स तस्सुववट्ठावणा अत्थि ॥ जो बाउकाइगे जीवे अइसद्दहदि जिणेहि पण्णते। उवलद्धपुण्णपावस्स तस्सुववट्ठावणा अस्थि ।। जो वणफविकाइगे जीवे अइद्दसहदि जिणेहि पण्णत्त । उवलपुण्णपावस्स तस्सुववट्ठावणा अस्थि ॥ जो तसकाइगे जोवे अइसहदि जिणेहिं पण्णत्त । उवलद्धपुण्णपावस्स तस्सुक्वट्ठावणा अस्थि ॥ अर्थात जो जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित जलकायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव एवं त्रसकायिक जीवों का तथा इनके अश्रित अन्य जीवों का अतिशयरूप से श्रद्धान करता है, पुण्य-माप के स्वरूप को जानकार उस व्यक्ति को रत्नत्रय में अवस्थिति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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