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समयसाराधिकारः] एवमकायिकान वनातिकापिकान सकाधिकाँश्व तदाश्रिताश्व यो नाभ्युपगच्छति तस्याप्युपस्थापना नास्ति सोऽपि मिथ्यावृष्टिरेव न कदाचिदपि मुक्तिमार्गे तस्य स्थितिय॑तो दर्शनाभावेन' चारित्रस्य ज्ञानस्य चाभाव एवदर्शनाविनाभावित्वात्तयोरिति ॥१०११॥ यः पुनः श्रद्दधाति स सदृष्टिरिति प्रतिपादयन्नाह
जो पुढविकायजीवे अइसद्दहदे जिर्णोहिं पण्णत्ते।
उवलद्धपुण्णपावस्स तस्सुवट्ठावणा अत्थि ॥१०१२॥ यः पृथिवीकायिकजीवांस्तदाश्रिताश्चातिशयेन श्रद्दधाति मन्यते जिनः प्रशप्तान् तस्योपलब्धपुण्यकायिक और सकायिक तथा उनके आश्रित जीवों को जो स्वीकार नहीं करता है उसके भी उपस्थापना नहीं होती है, वह भी मिथ्यादृष्टि ही है। उसकी मोक्षमार्ग में कदाचित् भी स्थिति नहीं है क्योंकि दर्शन के अभाव में चारित्र और ज्ञान का अभाव ही है। यह इसलिए कि ये दोनों सम्यक्त्व के साथ अविनाभावी हैं।
गाथार्थ-जो जिनदेवों द्वारा प्रज्ञप्त पृथ्वीकायिक जीवों के अस्तित्व का अतिशय श्रद्धान करता है, पुण्य पाप के ज्ञाता उस साधु की उपस्थापना होती है ॥१०१२॥
प्राचारवृत्ति-जो जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित पृथ्वीकायिक तथा उनके आश्रित जीवों का अतिशयरूप से श्रद्धान करता है और जिसने पुण्य-पाप का स्वरूप जान लिया है उसकी
१. दर्शनाभाव। • फलटन से प्रकाषित मुलाचार में निम्नलिखित पांच गाथाएं अधिक हैं
जो आउकाइगे जीवे पवि साहदि बिहिं पाते। दूरत्थो जिनवयणे तस्सुववठ्ठावना पत्थि ॥ जो ते उकाइगे जीवे वि सद्दहरि विहिं पणत्त । दूरस्थो जिणवयणे तस्सुक्वट्ठावना पत्थि ॥ जो वाउकाइगे जीवे ण सद्दहदि बिहिं पणतं। दूरत्यो जिणवयणे तस्सुववठ्ठावणा णत्य॥ जो वणप्फविकाइगे जीवेण विसइहदि जिणेहिं पण्णत्ते। दूरत्यो जिणवयणे तस्सवक्ट्ठावणा णस्थि ॥ जो तसकाइगे जीवेण वि सद्दहदि जिणेहिं पण्णते।
दूरत्थो जिणवयणे तस्सववट्ठावणा पत्थि ॥ अर्थ-जो जिनेन्द्र देव द्वारा कथित जलकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिनवचन से दूर ही स्थित है, उसके उपस्थापना नहीं होती। जो जिनदेव द्वारा कथित अग्निकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिनवचन से दूर स्थित है उसके उपस्थापना नहीं है। जो जिनदेव द्वारा कथित वायुकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिनवचन से दूर ही स्थित है. उसके उपस्थापना नहीं है । जो जिनदेव कथित वनस्पतिकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है, वह जिनवचन से दूर स्थित है, उसके उपस्थापना नहीं है । जो जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित त्रसकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिनवचन से दूर है, उसके उपस्थापना नहीं है।
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