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________________ १६८ ] असंयमप्रत्ययं तद्विशुद्धि च प्रतिपाद्य मिध्यात्वप्रत्ययं तद्विशुद्धि प्रतिपादयन्नाह - जो पुढविकाइजीवे ण वि सद्दहदि जिर्णोहि णिद्दिट्ठ े । दूरत्थो जिणवयणे तस्स उवद्वावणा णत्थि ।। १०११॥* यः पृथिवीकायिकान् जीवान् न श्रद्दधाति नाभ्युपगच्छति जिनैः प्रज्ञप्तान् प्रतिपादितान् स जिनवचनाद् दूरं स्थितो न तस्योपस्थापनाऽस्ति न तस्य सम्यग्दर्शनादिषु संस्थितिविद्यते मिथ्यादृष्टित्वादिति । असंयम प्रत्यय और उसकी विशुद्धि का प्रतिपादन करके अब मिथ्यात्व प्रत्यय और विशुद्धि को प्रतिपादित करते हैं [ मूलाचारे गाथार्थ - जो जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पृथ्वीकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिन वचन से दूर स्थित है, उसे उपस्थापना नहीं है ॥ १०११ ॥ आचारवृत्ति - जो जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित पृथ्वीकायिक जीवों को स्वीकार नहीं करता है वह जिन वचन से दूर ही रहता है, उसकी सम्यग्दर्शन आदि में स्थिति नहीं है क्योंकि वह मिध्यादृष्टि हो जाता है । इसी प्रकार से जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पति * फलटण से प्रकाशित मूलाचार में निम्नलिखित पाँच गाथाएं अधिक हैंतम्हा आउसमारंभो दुविहो तिविहेण वि । जिणमग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि ॥ तम्हा ते समारंभो दुविहो तिविहेण वि । जिणमग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि ॥ तम्हा वाउसमारंभो दुविहो तिविहेण वि । जिणमग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि ॥ तम्हा वणप्फविसमारंभो बुविहो तिविहेण वि । जिणमग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि ॥ तम्हा तससमारंभो दुविहो तिविहेण वि । जिण मग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि ॥ अर्थ -- अतः निज मार्गानुचारी साधुओं को दोनों प्रकार का जल के अर्थात् जलकायिक जीवों का और उसके आश्रित जीवों का आरम्भ मन-वचन-काय से यावज्जीवन नहीं करना चाहिए । अतः जिनमार्गानुचारी साधुओं को दोनों प्रकार के अग्निजीव का आरम्भ मन-वचन-काय से जीवनपर्यंत करना युक्त नहीं है । अतः जिनमार्ग के अनुरूप साधुओं को दोनों प्रकार के वायु जीवों का आरम्भ मन-वचन-काय से जीवनपर्यंत करना उचित नहीं है । अत: जैन शासन के अनुकूल साधुओं को दो प्रकार के वनस्पति जीवों का आरम्भ मन-वचन-काय से जीवन भर करना उचित नहीं है । Jain Education International अतः जिन मार्ग के अनुकूल प्रवृत्ति करनेवाले साधुओं को सजीवों का दो प्रकार का यह आरम्भ अर्थात् घात मन-वचन-काय से यावज्जीवन नहीं करना चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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