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________________ समयसाराधिकारः] [१६७ यतः पृथिवीकायिकादीनां तदाश्रितानां च समारम्भे ध्र वाहिसा तस्मात्पथिवीसमारम्भः खननादिको द्विविधो द्विप्रकारो पथिवीकायिकतदाश्रितोभयरूपोऽपि त्रिविधेन मनोवाक्कायरूपेण जिनमार्गानूचारिणां' यावज्जीवं न कल्प्यते न युज्यत इति । एवमप्तेजोवायुवनस्पतित्रसानां द्विप्रकारेऽपि समारम्भेऽवगाहनसेचनज्वालनतापनवीजनमुखवातकरणच्छेदनतक्षणादिकं न कल्प्यते जिनमार्गानुचारिण' इति ॥१०१०॥ आचारवृत्ति-पृथ्वीकायिक आदि जीवों की और उनके आश्रित जीवों की उनके खनन आदि समारम्भ से निश्चित ही हिंसा होती है, इसलिए पृथ्वीकायिक का समारम्भ दो प्रकार का है –पथ्वीकायिक कर आरम्भ और उनके आश्रित जीवों का घातरूप आरम्भ । ये दोनों प्रकार भी मन-वचन-काय की अपेक्षा से तीन प्रकार के हो जाते हैं। जिनमार्ग के अनुकूल चलनेवाले मुनियों को यह आरम्भ जीवनपर्यन्त करना युक्त नहीं है । इसी प्रकार जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों के दो प्रकार के भी आरम्भ में अर्थात् जल में अवगाहन करना, उसका सिंचन करना, अग्नि जलाना, उससे तपाना, हवा चलाना, मुख से फूंककर हवा करना, वनस्पति का छेदन करना, त्रस जीवों की हिंसा करना आदि आरम्भ साधु को करना उचित नहीं है। १. क मार्गानुसारिणां। २. क मार्गानुसारिणः। * फलटन से प्रकाशित प्रति में ये पांच गाथाएँ और हैं आउकायिगा जीवा आऊंजे समस्सिदा । दिट्ठा आउसमारंभे धुवा तेसि विराधणा ।। अर्थ--जलकायिक जीव और उसके आश्रित रहनेवाले अन्य जो असजीव हैं, जल के गर्म करने, छानने, गिराने आदि आरम्भ से निश्चित ही उनकी विराधना होती है। तेउकायिगा जीवा तेउते समस्सिवा। दिद्या तेउसमारंभे धुवा तेसि विराधणा ॥ अर्थ-अग्निकायिक जीव और अग्नि के आश्रित रहनेवाले जो जीव हैं उनकी अग्नि बुझाने आदि आरम्भ से निश्चित ही विराधना होती है। याउकायिगा जीवा वाते समस्सिदा । दिद्या वाउसमारंभे धुवा तेसि विराधणा॥ अर्थ-वायुकायिक जीव और उनके आश्रित रहनेवाले जो सजीव हैं, उनकी वायु के प्रतिबन्ध करने या पंखा करना आदि आरम्भ से निश्चित ही विराधना होती है। वणप्फदिकाइगा जीवा वणफदि जे समस्सिवा । विट्ठा वणप्फदिसमारंभे धुवा तेसि विराधणा॥ अर्थ-वनस्पतिकायिक जीव और उनके आश्रित रहनेवाले जो जीव हैं, वनस्पति फल-पुष्प के तोड़ने, मसलने आदि आरम्भ से उनकी नियम से विराधना होती है। जे तसकायिगा जीवा तसं जे समस्सिदा । विठ्ठा तससमारंभे धुवा तेसि विराधणा॥ अर्थ-जो त्रसकायिक जीव हैं और उनके आश्रित जो अन्य जीव हैं उन सब का घात, पीडिन आदि करने से नियम से उन जीवों की विराधना होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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