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________________ १६६ चाओ य होइ दुविहो संगच्चाओ कलत्तचाओ य । उभयच्चायं किच्चा साहू सिद्धि लहू लहदि ॥१००८॥ त्यागश्च भवति द्विविधः संगत्यागः कलत्रत्यागश्च तत उभयत्यागं कृत्वा साधुर्लघु शीघ्रं सिद्धि लभते न तत्र सन्देह इति ।। १००८ ।। चारित्रशुद्धिमसंयमप्रत्यय कषायप्रत्यययोगप्रत्ययस्वरूपशुद्धि च प्रतिपाद्य दर्शनशुद्धि मिथ्यात्वप्रत्ययशुद्धि च प्रतिपादयन्नाह - 'पुढवीकायिगजीवा पुढवीए चावि अस्सिदा संति । तम्हा पुढवीए आरम्भे णिच्चं विराहणा तेसि ॥ १०० ॥ पृथिवी कायिकजीवास्तद्वर्णगन्धरसाः सूक्ष्माः स्थूलाश्च तदाश्रिताश्चान्ये जीवास्त्रसाः शेषकायाश्च सन्ति तस्मात्तस्याः पृथिव्या विराधनादिके खननदहनादिके आरम्भ आरम्भसमारम्भसंरम्भादिके च कृते निश्चयेन तेषां जीवानां तदाश्रितानां प्राणव्यपरोपणं स्यादिति । एवमष्कायिकतेजः कायिकवायुकायिकवनस्पतिकायिक कायिकानां तदाश्रितानां च समारम्भे ध्रुवं विराधनादिकं भवतीति निश्चेतव्यम् ॥ १०० ॥ तम्हा पुढविसमारंभो दुविहो तिविहेण वि । 'जिण मग्गाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पई ॥ १०१०॥ [ मूलाचारे गाथार्थ - त्याग दो प्रकार का है - परिग्रहत्याग और स्त्रीत्याग, दोनों का त्याग करके साधु शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।। १००८ ॥ टीका सरल है । आचारवृत्ति - चारित्रशुद्धि, असंयमप्रत्यय, कषायप्रत्यय, और योगप्रत्यय इनकी स्वपशुद्धि का प्रतिपादन करके अब दर्शनशुद्धि और मिथ्यात्वप्रत्ययशुद्धि का प्रतिपादन करते हैंगाथा - पृथ्वी कायिक जीव और पृथ्वी के आश्रित जीव होते हैं। इसलिए पृथ्वी के आरम्भ में उन जीवों की सदा विराधना होती है ॥ १०० ॥ आचारवृत्ति - पृथ्वीकायिक जीव उसी पृथ्वी के वर्ण - गन्ध-रसवाले होते हैं । उनके सूक्ष्म और बादर ऐसे दो भेद हैं। इस पृथ्वी के आश्रित त्रसजीव तथा शेषकाय भी रहते हैं । इसलिए पृथ्वी के खोदने, जलाने आदि आरम्भ करने पर अर्थात् संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ द्वारा निश्चय से उन पृथ्वीकायिक का और उसके आश्रित जीवों का घात होता है। इसी प्रकार जल आदि के आरम्भ में जल कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों तथा इनके आश्रित जीवों की नियम से विराधना आदि होती ही है । गाथार्थ - इसलिए जिनमार्ग के अनुसार चलनेवालों को दोनों तरह का पृथ्वी का आरम्भ तीन प्रकार से यावज्जीवन नहीं करना चाहिए ।। १०१० ॥ १. फलटन से प्रकाशित संस्करण में इस गाथा में कुछ अन्तर है -- पुढवि कायिगा जीवा पुढव जे समा सिदा । विट्ठा पुढविसमारंभे धुवा तेसि विराधणा ॥ २. क जिण मग्गाणु सारीणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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