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समयसाधिकारः]
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दुर्मतिर्दीर्घसंसारं गच्छेदिति ॥१०१३॥ एवंभूतान् जीवान् पातुकामः श्रीगणधरदेवस्तीर्थंकरपरमदेवं पृष्टवानिति, तत्प्रश्नस्वरूपमाह---
कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये।
कधं भुंजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण वज्झदि ॥१०१४॥ एवं प्रतिपादितक्रमेण जीवनिकायकुले' जगति साधुः कथं केन प्रकारेण चरेद्गच्छेदनुष्ठानं वा कुर्यात् कथं तिष्ठेत् कथमासीत कथं वा शयीत कथं भुजीत कथं भाषेत कथं वदेत कथं पापं न बध्यते केन प्रकारेण पापागमो न स्यादिति ॥१.१४॥
है वह मुनिवेषधारी होकर भी दुर्मति है, अतः दीर्घ संसार में ही भ्रमण करता रहता है ।
इन पर्यायगत जीवों की रक्षा करने के इच्छुक श्रीगणधर देव ने तीर्थंकर परमदेव से जो प्रश्न किये थे, उन्हीं को यहाँ कहते हैं
मावार्थ हे भगवन् ! कैसा आचरण करे, कैसे ठहरे, कैसे बैठे, कैसे सोवे, कैसे भोजन करे एवं किस प्रकार बोले कि जिससे पाप से नहीं बंधे ॥१०१४।।
प्राचारवृत्ति-उपर्य क्त प्रतिपादित क्रम से जीवसमूह से व्याप्त इस जगत् में साध किस प्रकार से गमन करे अथवा अनुष्ठान करे ? किस प्रकार से खड़ा हो ? किस प्रकार से बैठे ? किस प्रकार से शयन करे? किस प्रकार से आहार करे तथा किस प्रकार से बोले? जिस प्रकार से पाप का आगमन न हो सो बताइए!
१.क. जीवनिकाया कुले। . फलटन से प्रकाशित कृति में वे गाथाएँ अधिक हैं
पसद्दहवि जो एवे जोधे उतग्गवे। स गच्छे दिग्घमवाणं लिंगत्थो विहु तुम्मवी ॥ ण सद्दहदि जो एवे जोवे तेउतग्गदे। स गच्छे दिग्धमद्धाणं लिंगत्थो विहु बुम्मदी॥ ण सदहदि जो एवे जीवे वाउतग्गदे । स गच्छे दिग्धमद्धाणं लिंगत्यो विहु दुम्मदी । प सहहदि जो एवं जीवे वणप्फवितग्गवे। स गच्छे विग्धमवाणं लिंगत्यो विहु दुम्मवी। ण सद्दहदि जो एवे जीवे तसतग्गवे।
स गच्छे दिग्धमद्धाणं लिंगत्थो विहम्मदी॥ अर्थ-जो जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों का तथा उनके आश्रित जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह दुर्मति मुनि वेषधारी होते हुए भी दीर्घ संसार को प्राप्त करता है।
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