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[ मूलाचार
णामेण जहा समणो ठावणिए तह य दव्वभावेण ।
णिक्खेवो वोह तहा चदुविहो होइ णायव्वो॥१००३॥ श्रमणगोचरं निक्षेपमाह-नाम्ना यथा श्रमणः स्थापनया तथैव तत्र द्रव्येण भावेन च तव द्रष्टव्यः । नामश्रमणमात्र नामश्रमणः तदाकृतिलेपादिषु स्थापनाश्रमणो गणरहितलिंगग्रहणं द्रव्यश्रमणो मूलगुणोत्तरगणानुष्ठानप्रवणभावो भावभ्रमणः । एवमिह निक्षेपस्तथैवागमप्रतिपादितक्रमेण चतविधो भवति ज्ञातव्य इति ॥१००३॥ तेषां मध्ये भावश्रमणं प्रतिपादयन्नाह
भावसमणा हु समणा ण सेससमणाण सुग्गई जम्हा।
जहिऊण दुविहमुहिं भावेण सुसंजदो होह ॥१००४॥ भावश्रमणा एव श्रमणा यतः शेषश्रमणानां नामस्यापनाद्रव्याणां न सुगतिर्यस्मात्तस्मादिविधमुपधि द्रव्यभावजं परित्यज्य भावेन सुसंयतो भवेदिति ॥१००४।। भिक्षाशुद्धि च कुर्यादित्याह
वबसीलगुणा जम्हा भिक्खाचरिया विसुद्धिए ठंति'।
तम्हा भिक्खाचरियं सोहिय साहू सदा विहारिज्ज ॥१००५॥ गाथार्थ-जैसे नाम से श्रमण होते हैं वैसे ही स्थापना से, द्रव्य से तथा भाव से होते हैं। इस तरह इस लोक में निक्षेप भी चार प्रकार का जानना चाहिए ॥१००३।।
आचारवृत्ति-श्रमण में निक्षेप को कहते हैं- जैसे नाम से श्रमण होते हैं वैसे ही स्थापना से, द्रव्य से और भाव से भी जानना चाहिए । नाम-श्रमण मात्र को नामश्रमण कहते हैं। लेप आदि प्रतिमाओं में श्रमण की आकृति स्थापनाश्रमण है । गुणरहित वेष ग्रहण करनेवाले द्रव्यश्रमण हैं और मूलगुण-उत्तरगुणों के अनुष्ठान में कुशल भावयुक्त भावश्रमण होते हैं। इस तरह आगम में कहे गये विधान से चार प्रकार का निक्षेप यहाँ पर भी जानना चाहिए।
उनमें से भावश्रमण का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ-भावश्रमण ही श्रमण हैं क्योंकि शेष श्रमणों को मोक्ष नहीं है, इसलिए हे मुने ! दो प्रकार के परिग्रह को छोड़कर भाव से सुसंयत होओ ॥१००४॥
आचारवृत्ति-भावश्रमण ही श्रमण होते हैं, क्योंकि नाम, स्थापना और द्रव्य श्रमणों को सुगति नहीं होती है । इसलिए द्रव्य-भाव रूप परिग्रह को छोड़कर भाव से श्रेष्ठ संयमी बनो।
भिक्षाशुद्धि करो ! ऐसा कहते हैं
गाथार्थ-क्योंकि भिक्षाचर्या की विशुद्धि के होने पर व्रत, शील और गुण ठहरते हैं, इसलिए साधु भिक्षाचर्या का शोधन करके हमेशा विहार करे ॥१००५।।
१. भवेत् ।
२. कति ।
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