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समयसाराधिकारः ]
ब्रह्मचर्यं सम्यक् तिष्ठतीति, स च चारित्रवानिति ॥ १००० ॥
परिग्रहपरित्यागे फलमाह -
कोहमद मायलोहहिं परिग्गहे लयइ संसजइ जीवो । णुभयसंगचाओ काव्वो सव्व साहूहि ॥१००१ ॥
यतः क्रोधमदमायालोभः परिग्रहे लगति संसजति 'परिग्रहत्वाद् गृह्णाति जीवस्तेन कारणेनोभयसंगत्यागः कर्त्तव्यो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरिहारः कार्यः । उभयाब्रह्म च परिहरणीयं येन सह क्रोधमानमायालोभाश्च यत्नतस्त्याज्याः सर्वसाधुभिरिति ।। १००१ ॥
ततः -
सिंगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य । गागी भारदो सव्वगुणड्ढो हवे समणो ।। १००२॥
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उभयपरिग्रहाभावैर्निःसंगो मूर्च्छारहितस्तश्च निरारम्भः पापक्रियादिभ्यो निवृत्तस्ततश्च भिक्षाचर्यायां शुद्धभावो भवति ततश्चैकाकी ध्यानरतः संजायते ततश्च सर्वगुणाढ्यः सर्वगुणसम्पन्नो भवेत् ॥१००२॥ पुनरपि श्रमणविकल्पमाह
का त्याग कर देते हैं उनके दोनों प्रकार का ब्रह्मचयं अच्छी तरह से रहता है और वही चारित्रवान् होते हैं ।
परिग्रह - परित्याग का फल कहते हैं
गाथार्थ - क्रोध, मान, माया और लोभ के द्वारा यह जीव परिग्रह में आसक्त होता है । इसलिए सर्वसाधुओं को उभय परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए || १००१ ॥
आचारवृत्ति - क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायों के द्वारा यह जीन परिग्रह में संसक्त होता है । इसलिए बाह्य और आभ्यन्तर इन दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिए तथा दोनों प्रकार के अब्रह्म का भी त्याग कर देना चाहिए। इनके साथ-साथ क्रोधादि कषायों का तो सभी साधुओं को प्रयत्नपूर्वक त्याग कर ही देना चाहिए ।
इससे क्या होता है ?
गाथार्थ - जो निःसंग, निरारम्भ, भिक्षाचर्या में शुद्धभाव, एकाकी, ध्यानलीन और सर्वगुणों से युक्त हो वही श्रमण होता है ।। १००२ ॥
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आचारवृत्ति - जो निसंग - अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह के अभाव से मूर्च्छारहित, निरारम्भ - पापक्रियाओं से निवृत्त आहार की चर्या में शुद्धभाव सहित, एकाकी, ध्यान में लीन होते हैं वे श्रमण सर्वगुणसम्पन्न कहलाते हैं ।
श्रमण के भेद कहते हैं
१. क परिग्रहान्वा । २. क भवेत् श्रमणः ।
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