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________________ [ मूलाचारे राजकारणः शरीरस्य संस्करणं, तृतीय ब्रह्म गन्धमाल्यानि यक्षकर्दमा महिषीधूपादिना 'सुगन्धग्रहणं, चतुर्थमब्रह्म गीतवादित्रादि सप्तस्वरपंचातोद्यवंशवीणातन्त्रीप्रभृति कमिति ॥६६॥ तथा तथा शयनं तुलिकापर्यकादिकं शोधनं क्रीडागहं चित्रशालादिकं रहस्यस्थानं कामोद्रेककारणं पंचममब्रह्म। तथापि च स्त्रीसंसर्गः रागोत्कटवनिताभिः कटाक्षनिरीक्षणपराभिरुपप्लवशीलाभिः सम्पर्कः क्रीडनं षष्ठमब्रह्म । तथार्थस्प सुवर्णादिकस्याभरणवस्त्रादिकस्य च ग्रहणं सप्तममब्रह्म। तथा पूर्वरतिस्मरणं पूर्वस्मिन् काले यत् क्रीडितं तस्यानुस्मरण चिन्तनमष्टममब्रह्म । तथेन्द्रियविषयेषु रूपरसगन्धशब्दस्पर्शेषु कामांगेषु रतिः समीहा नवममब्रह्म । तथा प्रणीतरससेवा इष्टरसानामुपसेवनं दशममब्रह्म। अब्रह्मकारणत्वाद् अब्रह्मेति ॥१६॥ तस्य दशप्रकारस्यापि परिहारमाह दसविहमब्बभमिण संसारमहादुहाणमावाहं । परिहरइ जो महप्पा णो दढबंभव्वदो होदि ॥१०००। एवं दशप्रकारमप्यब्रह्मेदं 'संसारकारणानां महदुःखानामावाहमवस्थानं प्रधानहेतुभूतं परिहरति यो महात्मा संयतः स दृढब्रह्मवतो भवति। भावाब्रह्मकारणं द्रव्याब्रह्मकारणं च यः परित्यजति तस्योभयथापि द्वितीय अब्रह्म है । केशर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ एवं पुष्पमाला, धूप आदि की सुगन्धि ग्रहण करना तृतीय अब्रह्म है। पंचम, धैवत आदि सात स्वरों का पाँच प्रकार के आतोद्य, बांसुरी, वीणा, तन्त्री आदि वाद्यों का सुनना चतुर्थ अब्रह्म है । तूलिका, पर्यंक अर्थात् कोमल-कोमल रुई के गद्दे, पलंग आदि का शोधन करना एवं कामोद्रेक के कारणभूत क्रीड़ास्थल, चित्रशाला आदि व एकान्त स्थान आदि में रहना-यह पाँचवा अब्रह्म है। राग से उत्कट भाव धारण करती हुई, कटाक्ष से अवलोकन करती हुई एवं चित्त में चंचलता उत्पन्न करती हुई स्त्रियों के साथ सम्पर्क रखना, उनके साथ कोड़ा करना छठा अब्रह्म है। सुवर्ण, आभरण, वस्त्र, धन आदि का संग्रह करना सातवाँ अब्रह्म है । पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों का स्मरण-चिन्तन करना आठवां अब्रह्म है। रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन पाँचों इन्द्रियों के विषयों में रति करना नवम कारण है। तथा इष्ट रसों का सेवन करना दसवाँ अब्रह्म है । ये दश अब्रह्म के कारण होने से अब्रह्म कहलाते हैं। इन दश प्रकारों के परिहार के लिए कहते हैं गाथार्थ-जो महात्मा संसार के महादुःखों के लिए स्थानरूप इन दश प्रकार के अब्रह्म का परिहार करता है वह दृढ़ ब्रह्मचर्यव्रती होता है ॥१०००॥ ___ आचारवृत्ति-ये दश प्रकार के अब्रह्म संसार के कारणभूत हैं तथा महादुःखों के प्रधान कारण हैं। जो संयमी महापुरुष इनका त्याग करते हैं वे अपने ब्रह्मचर्यव्रत को अतिशय दढ़ कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भाव-अब्रह्म के कारण और द्रव्य-अब्रह्म के कारण इन दोनों १. क सुगन्धपुष्पग्रहणं। २. क संसारकारणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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