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समयसाराधिकारः ]
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मनसि ब्रह्मचर्यं वचसि ब्रह्मचर्यं काये ब्रह्मचर्यमिति त्रिप्रकारं ब्रह्मचर्यमथवा स्फुटं ब्रह्मचर्यं द्रव्यभावभेदेन द्विविधं तत्र भावब्रह्मचर्यं प्रधानमिति ॥ ६६ ॥
यतः -
भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुग्गई होई । विसयवणरमणलोलो धरियन्वो तेण मणहत्थी ॥ ६६७॥
भावेन विरक्तोन्डत रंगेण च यो विरक्तः स एव विरतः संयतो न 'द्रव्येणाब्रह्मवृत्या विरतस्य तस्य सुगतिः शोभना गतिर्भवति यतोऽतो विषया रूपादयस्त एव वनमारामस्तस्मिन् रमणलोलः क्रीडालम्पटो घारयितव्यो नियमितव्यस्तेन मनोहस्ती चित्तकुंजर इति ॥ ६७॥
अब्रह्मकारणं द्रव्यमाह -
पढमं विउलाहारं विवियं कायसोहणं ।
तदियं गंधमल्लाइं चउत्थं गीयवाइयं ॥६८॥
तह सयण सोधणं पिय इत्थिसंसग्गं पि अत्थसंग्रहणं । पुठवर दिसरणमदियविसयरदी पणिदरससेवा ॥९६६॥ प्रथममब्रह्मचर्यं विपुलाहारः प्रचुरगृह्यान्नग्रहणं, द्वितीयमब्रह्म कायशोधनं स्नानाभ्यंगनोद्वर्तनादिभी
आचारवृत्ति - मन, वचन और काय की अपेक्षा से ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का है । अथवा द्रव्य और भाव के भेद से वह दो प्रकार का है। इनमें भाव ब्रह्मचर्य प्रधान है ।
क्योंकि
गाथार्थ - भाव से विरत मनुष्य ही विरत है, क्योंकि द्रव्यविरत की मुक्ति नहीं होती है । इसलिए विषयरूपी वन में रमण करने में चंचल मनरूपी हाथी को बाँधकर रखना चाहिए ॥६७॥
प्राचारवृत्ति - जो अन्तरंगभावों से विरक्त हैं वे ही संयत कहलाते हैं। द्रव्य रूप कुशील का विरति मात्र से विरक्त हुए की उत्तम गति नहीं होती है । इसलिए पंचेन्द्रियों के रूप-रस आदि विषयरूपी बगीचे में क्रीडा करते हुए इस चित्तरूपी हाथी को वश में करना चाहिए ।
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अब्रह्म के कारणभूत द्रव्यों को कहते हैं
गाथा - पहले विपुल आहार करना, दूसरे काय का शोधन करना,
तीसरे गन्ध-माला आदि धारण करना, चौथे गीत और बाजे सुनना, तथा शयनस्थान का शोधन, स्त्रीसंसर्ग, धनसंग्रह, पूर्व रति-स्मरण, इन्द्रियजन्य विषयों में अनुराग और पौष्टिक रसों का सेवन – ये दश ब्रह्म के कारण हैं ।। ६६८- ६६६॥
आचारवृत्ति - अत्यधिक भोजन करना - अब्रह्मचर्य का यह प्रथम कारण है जो कि अब्रह्म कहलाता है । स्नान, तैलमर्दन, उबटन आदि राग के कारणों से शरीर का संस्कार करना
१. क द्रव्येण बाह्यवृत्त्या । २. क प्रथममब्रह्म ।
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