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________________ १६० ] [ मूलाचारे तथा मायाए वहिणीए धूआए मूइ वुड्ढ इत्थीए। बोहेदव्वं णिच्चं इत्थीरूवं णिरावेक्खं ॥६६४॥ मातुः स्त्रीरूपाद्भगिन्याश्च स्त्रीरूपाद् दुहितुश्च स्त्रीरूपाद् मूकाया वृद्धायाश्च स्त्रीरूपाद् भेतव्यं नित्यं निरपेक्ष यतः स्त्री तु पावकरूपमिव सर्वत्र दहतीति ॥१४॥ तथा 'हत्थपादपरिच्छिण्णं कण्णणासवियप्पियं । अविवास सदि णारि दूरिदो परिवज्जए ॥६५॥ हस्तच्छिन्ना पादच्छिन्ना च कर्णहीना नासिकाविहीना च सुष्ठु विरूपा यद्यपि भवति अविवस्त्रां सती नग्नामित्यर्थः, नारौं दूरतः परिवर्जयेत् यत: काममलिनस्तां वाञ्छेदिति ॥६६॥ ब्रह्मचर्यभेदं प्रतिपादयन्नाह मण बंभचेर वचि बंभचेर तह काय बंभचेरं च । अहवा हु बंभचेरं दव्वं भावं ति दुवियप्पं ॥६६॥ तथा गाथार्थ माता, बहिन, पुत्री, मूक व वृद्ध स्त्रियों से भी नित्य ही डरना चाहिए क्योंकि स्त्रीरूप माता आदि के भेद से निरपेक्ष है ।।६६४॥ आचारवृत्ति-माता, बहिन, पुत्री अथवा गूंगी या वृद्धा, इन सभी स्त्रियों से डरना चाहिए । स्त्रीरूप की कभी भी अपेक्षा नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्त्रियाँ अग्नि के समान सर्वत्र जलाती हैं। भावार्थ-माता, बहिन आदि के भेद से स्त्रीरूप विशेषता रहित है अर्थात् स्त्री मात्र से भयभीत रहना चाहिए। उसी को और भी कहते हैं गाथार्थ हाथ-पैर से छिन्न, कान व नाक से हीन तथा वस्त्र-रहित स्त्रियों से भी दूर रहना चाहिए ।।६६५॥ प्राचारवत्ति-जो हाथ-पैर या कान अथवा नाक से विकलांग हो, अर्थात् छिन्न-हस्त, छिन्न-पाद, कर्णहीन, नासिकाहीन होने से यद्यपि कुरूपा हो तथा वस्त्ररहित या नग्नप्राय हो उन्हें दूर से ही छोड़ देना चाहिए क्योंकि काम से मलिन हुए पुरुष इनकी भी इच्छा करने लगते हैं। ब्रह्मचर्य के भेदों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-मन से ब्रह्मचर्य, वचन से ब्रह्मचर्य और काय से ब्रह्मचर्य, इस प्रकार ब्रह्मचर्य के तीन भेद हैं। अथवा द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का ब्रह्मचर्य है ।।९८६।। १. कहत्यपादविच्छिणं च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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