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समयसाराधिकारः]
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यतः कषायवशगोऽसंयतो भवतीति तत:
वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं ।
विवाहे रागउप्पत्ती गणो दोसाणमागरो ॥९८५॥ यतेरन्तकाले गणप्रवेशाच्छिष्यादिमोहनिबन्धनकूलमोहकारणात्पंचपार्श्वस्थसम्पकोद्वर श्रेष्ठं विवाहे प्रवेशनं वरं गृहप्रवेशो यतो विवाहे दारादिग्रहणे रागोत्पत्तिर्गणः पूनः सर्वदोषाणामाकरः सर्वेऽपि मिथ्यात्वासंयमकषायरागद्वेषादयो भवन्तीति ॥९८५॥ कारणाभावेन दोषाणामभाव इति प्रतिपादयन्नाह
पच्चयभूदा दोसा पच्चयभावेण णत्थि उप्पत्ती।
पच्चयभावे दोसा णस्संति णिरासया जहा बोयं ॥९८६॥ वस्तुएँ कथंचित भेदरूप एवं कथंचित अभेदरूप होने से भेदाभेदात्मक हैं।
जिस हेतु से कषाय के वशीभूत जीव असंयत होता है उसे स्पष्ट करते हैं -
गाथार्थ अन्त समय गण में प्रवेश करने की अपेक्षा विवाह कर लेना अच्छा है, क्योंकि विवाह में राग की उत्पत्ति है और गण भी दोषों की उत्पत्ति का स्थान है ।।६८५॥
आचारवृत्ति-मुनि यदि अन्त समय में गण में प्रवेश करते हैं अर्थात अपने संघ को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते हैं तो उनके लिए वह संघ शिष्य आदि के प्रति मोह उत्पन्न कराने से मोह का कारण है एवं पाँच प्रकार के पार्श्वस्थ मुनियों से सम्पर्क कराता है । अतः उस सदोष संघ में रहने की अपेक्षा विवाह करके घर में प्रवेश कर लेना अच्छा है; क्योंकि स्त्री आदि के ग्रहण में राग की उत्पत्ति होती है, सदोष गण भी सर्वदोषों का स्थान है । अन्त समय ऐसे गण में रहने से मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और राग-द्वोष आदि सारे दोष हो जाया करते हैं।
भावार्थ-आचार्य अन्त समय निर्विघ्नतया सल्लेखना की सिद्धि के लिए अपने संघ को छोड़कर अन्य संघ में चले जायें और यदि उत्तम संहननधारी हैं तो एकाकी निर्जन वन में कायोत्सर्ग से स्थित होकर शरीर का त्याग कर दें ऐसी आगम की आज्ञा है । उसी प्रकरण को लेकर यहाँ पर कहा गया है कि संघ में प्रवेश की अपेक्षा विवाह कर लेना अच्छा है। यह बात टीकाकार ने 'यतेरन्तकाले' पद से स्पष्ट कर दी है। उसका ऐसा अर्थ नहीं कि साधु किसी संघ में न रहकर एकाकी विचरण करें, क्योंकि स्वयं ग्रन्थकार ने (गाथा १५० में ) हीन संहननवाले मुनियों को एकाकी विहार करने का सर्वथा निषेध किया है, बल्कि यहाँ तक कह दिया है कि स्वच्छन्द गमनागमन आदि करनेवाला ऐसा मेरा शत्रु मुनि भी एकाकी विहार न करे । अतः यहाँ पर अन्त समय में स्वसंघ छोड़कर परसंघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करने का आचार्य ने संकेत किया है।
कारण के अभाव में दोषों का अभाव हो जाता है ऐसा प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थकारण से दोष होते हैं, कारण के अभाव में उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। प्रत्यय के अभाव से निराश्रय दोष नष्ट हो जाते हैं जैसे कि बीजरूप कारण के बिना अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती ॥९८६॥
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