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________________ १५४ ] [ मूलाचारे पर्ययज्ञानं चानन्तविषयत्वादनन्तकल्पं केवलज्ञानमथवा संख्यातासंख्यातानन्त वस्तुपरिच्छेदकत्वात्संख्याता संख्यातानन्तकल्पं केवलज्ञानमनन्तविकलं चैते सर्वे पर्यायास्तथा रागद्वेषमोहपर्यायास्तथाऽन्येपि जीवस्य पर्याया नारकत्वादयो बालयवस्थविरत्वादयश्चेति ॥८३॥ तथैवाह कसायं तु चरितं कसायवसिओ असंजदो होदि । उवसमदि ज िकाले तक्काले संजदो होदि ॥ ६८४ ॥ * चारित्रं नामाकषायत्वं यतः कषायवशगोऽसंयतः, मिथ्यात् पायादियुक्तो न संयतः स्याद् यस्मिन् काले उपशाम्यति व्रतस्थो भवति । यस्मात्स एव पुरुषो मिथ्यात्वादियुक्तो मिध्यादृष्टिरसंयतः सम्यक्त्वा - दियुक्तः सन् स एव पुनः सम्यग्दृष्टिः संयतश्च पुरुषत्वसामान्येन पुनरभेदस्तस्मात्सर्वोऽपि भेदाभेदात्मक इति ॥ ९८४ ॥ हैं । असंख्यात के विषय करनेवाले होने से अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान असंख्येय-- असंख्यात कहलाते हैं । अनन्त को विषय करनेवाला होने से केवलज्ञान अनन्तकल्प कहलाता है । अथवा संख्यात, असंख्यात और अनन्त वस्तुओं को जाननेवाला होने से संख्यात, असंख्यात और अनन्त - रूप केवलज्ञान है । ये सभी पर्यायें अनन्त भेद रूप हैं इसलिए केवलज्ञान भी अनन्त विकल्प - . रूप है। उसी प्रकार से जीव की राग, द्वेष और मोह पर्यायें हैं । अन्य भी नारक, तिर्यंच आदि तथा बाल, युवा, वृद्धत्व आदि पर्यायें होती हैं । उसी प्रकार से कहते हैं गाथार्थ - कषायरहित होना चारित्र है । कषाय के वश में हुआ जीव असंयत होता है । जिस काल में उपशमभाव को प्राप्त होता है उस काल में यह संयत होता है ॥ ६८४|| आचारवृत्ति - अकषायपना ही चारित्र है, क्योंकि कषाय के वशीभूत हुआ जीव असंयत है । मिथ्यात्व, कषाय आदि से युक्त जीव संयत नहीं कहलाता है । जिस काल में व्रतों में स्थित होता हुआ कषायों को नहीं करता है उस काल में चारित्र में स्थित हुआ संयत होता है । जिस हेतु से वही पुरुष मिथ्यात्व आदि से युक्त हो मिथ्यादृष्टि- असंयत कहलाता है और सम्यक्त्व आदि से युक्त होकर वही पुनः सम्यग्दृष्टि व संयत कहलाता है, पुरुष सामान्य की दृष्टि से उन सभी अवस्थाओं में अभेद है उसी हेतु से सभी पदार्थ भेदाभेदात्मक हैं, ऐसा समझना । भावार्थ - यहाँ पर जीव आदि सभी पदार्थ सामान्य की अपेक्षा अर्थात् द्रव्य दृष्टि से एकरूप हैं एवं विशेष की अपेक्षा अर्थात नाना पर्यायों की दृष्टि से भेदरूप हैं । इसलिए सभी * फलटण से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा अधिक है -- आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठ | णेयं लोयालोयं तह्मा णाणं तु सगवं ॥ Jain Education International अर्थात् आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है । ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है इसलिए ज्ञान सर्वगत माना गया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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