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[ मूलाचारे
प्रत्ययात्कर्मबन्धात् शिष्यादिमोहनिबन्धनकूलमोहकारणाद्भूताः संजाता' दोषा रागद्वेषादयः कलषजीवपरिणामाः, प्रत्ययाभावाच्च रागद्वेषादिकारणभूतकर्माभावाच्च नास्त्युत्पत्ति व प्रादुर्भावस्तेषां दोषाणां यतश्चोत्पत्तिर्नास्ति तत: प्रत्ययाभावात्कारणाभावाद्दोषा मिथ्यात्वासंयमकपाययोगनिर्वतितजीवपरिणामा नश्यन्ति निर्मूलं क्षयमुपव्रजन्ति निराश्रयाः सन्तः स्वकीयप्रादुर्भावकारणमन्तरेण, यथा प्रत्ययाभावाद्बीजमंकुरं जनयतिबीजस्यांकूरोत्पत्तिनिमित्तं क्षितिजलपवनादित्य रश्मयस्तेषामभावे विपरीते पतितं बीजं यथा नश्यति । न येषां कारणानां सद्भावे ये दोषा उत्पद्यन्ते तेषां कारणानामभावे तत्फलभूतदोषाणामनुत्पत्तिर्यथा स्वप्रत्ययाभावात्स्वकारणाभावाद्वीजस्यानुत्पत्तिरंकुरत्वेन तत उत्पत्त्यभावान्निराश्रया रागद्वेषादयो दोषा नश्यन्ति यथा बीजमुत्पत्तिमंतरेण पश्चान्नश्यतीति ॥९८६।। तपा
हेदू पच्चयभूदा हेदुविणासे विणासमुवयंति।
तह्मा हेदुविणासो कायव्वो सव्वसाहहिं ॥९८७॥ आचारवत्ति-प्रत्यय-कर्मबन्ध से शिष्य आदि में मोह निमित्त से और संघ में मोह के कारण जीव के कलुषित परिणाम रूप राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। राग-द्वेष आदि के लिए कारणभूत कर्मों के अभाव से उन दोषों का प्रादुर्भाव नहीं होता है। कारण के न होने से मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से होनेवाले जीव के परिणाम निर्मूलतः क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि वे अपने उत्पत्ति के कारण के बिना आश्रय-रहित हो जाते हैं। जैसे कारण के अभाव में बीज अंकुर उत्पन्न नहीं करता है ।बीज के अंकुर की उत्पत्ति के लिए निमित्त पृथ्वी, जल, हवा और सूर्य की किरणें हैं । इनके अभाव में या विपरीत स्थान पर पड़ा हुआ बोज जैसे नष्ट हो जाता है वैसे ही रक्त विषय में समझना।
__जिन कारणों के होने पर जो दोष उत्पन्न होते हैं उन कारणों के अभाव में उनके फलभूत दोषों की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे अपने लिए कारणभूत सामग्री के अभाव में बीज की अंकुररूप से उत्पत्ति नहीं होती है । इसलिए उत्पत्ति के कारणों के न होने से आश्रय रहित रागदेष आदि दोष नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ-अभिप्राय यही है कि शिष्यादि के निमित्त से मोह, राग-द्वोष उत्पन्न होते हैं और उनके नहीं होने से नहीं होते हैं अतः दोषों से वचने के लिए उन्हें छोड़ देना चाहिए । यह उन्हीं के लिए सम्भव है जो उत्तम संहननधारी हैं। चूंकि गाथा ६६१ में भी एकाकी विहारी को पाप श्रमण कहा है अथवा इसे भो अन्त समय सल्लेखना ग्रहण काल की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि उस समय स्वगण को छोड़कर परगण में प्रवेश कर समाधि साधने का उपदेश दिया गया है।
-उसे ही और करते हैं
गाथार्थ-प्रत्यय कारण हैं। उन कारणों के नष्ट हो जाने पर वे कार्य भी नष्ट हो जाते हैं, इसलिए सभी साधुओं को चाहिए कि वे कारण का विनाश करें॥९८७॥
१. क सन्तः ।
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