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________________ समयसाराधिकारः ] परिवर्तितानि बहुकवानेव जीवनेत्यचिन्तयेद् ध्यायेदिति ॥ ९७७॥ तथैतदपि ध्यायेदित्याह भ्रमणोपेतमिति ॥ ६७८ ॥ मोहग्गणा महंतेण दज्झमाणे महाजगे धीरा । समणा विसयविरत्ता भायंति अनंतसंसारं ॥ ६७८ ॥ मोहाग्निना महता दह्यमानं महाजगत् सर्वलोकं धीरा विषयविरक्ता ध्यायन्त्यनन्तसंसारं चतुर्गति ध्यानं नाम तपस्तदारम्भं न सहत इति प्रतिपादयन्नाह- आरंभं च कसायं च ण सहदि तवो तहा लोए । अच्छी लवणसमुद्दो य कयारं खलु जहा दिट्ठ ६७६॥ यथाऽक्षि' चक्षुलंवणसमुद्रश्च `कचारं तृणादिकमन्तस्थं पतितं न सहते स्फुटं करोतीति दृष्टं तथा तपश्चारित्रमारम्भं परिग्रहोपार्जनं कषार्यांश्च न सहते न क्षमते बहिष्करोतीति ॥ ६७६ ॥ पंच परिवर्तनानि जीवन कि तेनैवाहोस्विदन्येन तेनैव नान्येन कथमित्याशंकायामाह - ग्रहण करना भव-परिवर्तन है । इस प्रकार इन पाँचों परिवर्तनों को इस जीव ने अनादिकाल से कई बार किया है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए । तथा और भी ध्यान करें- Jain Education International गाथार्थ - यह महाजगत् महान मोहरूपी अग्नि से जल रहा है। धीर तथा विषयों से विरक्त श्रमण इस अनन्त संसार का चिन्तवन करते हैं ||६७८ ॥ [ १५१ आचारवृत्ति - धीर तथा विषयों से विरक्त मुनि इस चतुर्गति भ्रमण रूप अनन्त संसार का ऐसा चिन्तवन करते हैं कि यह सर्वलोक महान मोहरूपी अग्नि से जल रहा है । अर्थात् मोह ही इस अनन्त संसार में भ्रमण कराने का मूल कारण है ऐसा चिन्तन किया करते हैं । १. क० यथा चक्षुः । ध्यान एक तप है, वह आरम्भ को नही सहन करता है, यह बताते हैं गाथार्थ - यह ध्यान- तप आरम्भ और कषायों को उसी प्रकार से सहन नहीं करत जिस प्रकार से नेत्र और लवणसमुद्र निश्चित ही कचरे को नहीं सहन करते हैं ऐसा इस जगत् में देखा जाता है ।। ६७६ ॥ आचारवृत्ति - जैसे नेत्र और लवण समुद्र अपने अन्दर पड़े हुए तृण आदि को नहीं सहन करते, स्पष्टतया किनारे कर देते हैं ऐसा देखा जाता है, उसी प्रकार से यह तपरूप चारित्र आरम्भ - परिग्रह का उपार्जन और कषायों को नहीं सहन करता है, इन्हें बाहर कर देता है । अर्थात् आरम्भ और कषायों के रहते हुए चारित्र तथा ध्यान असम्भव हैं । इनपंच परिवर्तनों को क्या उसी जीव ने किया है अथवा अन्य जीव ने ? यदि उसी २. क० यथा कचारं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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