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________________ १५० १ व्यानं प्रपंचयन्नाह - कम्मस्स बंधमोक्खो जीवाजीवे य दव्वपज्जाए । संसारसरीराणि य भोगविरत्तो सया झाहि ॥६७६॥ कर्मणो ज्ञानावरणादेर्बन्धं जीवकर्मप्रदेशसंश्लेषं तथा मोक्षं सर्वथा कर्मापायं तथा जीवान् द्रव्यभावप्राणधारणसमर्थानजीवान् पुद्गलधर्माधर्माकाशकालान् द्रव्याणि सामान्यरूपाणि पर्यायान् विशेषरूपान् संसारं चतुर्गतिभ्रमण शरीराणि चौदारिकवैक्रियिकाहारकनै जसकार्मणानि च भोगविरक्तो रागकारणेभ्यो विरक्तः सन् सदा सर्वकालं ध्याय सम्यग्भावयेति ॥ ६७६ ॥ संसारविकल्पं भावयन्नाह - दव्वे खेत्ते काले भावे य भवे य होंति पंचेव । परिट्टणाणि बहुसो अणादिकाले य चितेज्जो ॥ ६७७ ॥ [मूलाचारे द्रव्यपरिवर्तनानि कर्मनो कर्मतत्स्वरूपग्रहणपरित्यजनानि, क्षेत्रपरिवर्तनानि सर्वप्रदेशेषत्पत्तिमरणानि, कालपरिवर्तनानि उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयेषूत्पत्तिमरणानि, भावपरिवर्तनानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टबन्धस्थितिबन्धरूपाणि भवपरिवर्तनानि सर्वायुर्विकल्पेषूत्पत्तिमरणानि एवं पंचपरिवर्तनानि अनादिकालेऽतीतकाले Jain Education International ध्यान का वर्णन करते हैं गाथा - हे मुने ! तुम भोगों से विरक्त होकर कर्म का, बन्ध-मोक्ष का, जीव- अजीव का, द्रव्य पर्यायों का तथा संसार और शरीर का हमेशा ध्यान करो ॥ ६७६ ॥ आचारवृत्ति - साधु भोगों और राग के कारणों से विरक्त होते हुए हमेशा अच्छी तरह 'से चिन्तवन करे। किन-किन का ? वही बताते हैं- ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध का, जो कि जीव और कर्म- प्रदेशों का आपस में संश्लेषरूप होता है, तथा सर्वथा कर्मों का नष्ट हो जाना मोक्ष है । द्रव्य और भाव प्राणों को धारण करने में जो समर्थ हैं वे जीव हैं । चेतना लक्ष्ण रूप प्राणों से रहित का नाम अजीव है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अजीव हैं । इनका सामान्य स्वरूप द्रव्य है । इनकी विशेष अवस्थाओं को पर्याय कहते हैं । चतुर्गति के भ्रमण का नाम ससार है । औदारिक वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये शरीर हैं । इन बन्ध-मोक्ष, जीव- अजीव, द्रव्य-पर्याय तथा संसार और शरीर के स्वरूप का मुनि हमेशा चिन्तवन करे । संसार के भेदों को कहते हैं गाथार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव ये पाँच संसार होते हैं । अनादिकाल से ये परिवर्तन अनेक बार किये हैं ऐसा चिन्तवन करे ।। ६७७ ।। आचारवृत्ति - कर्म और नोकर्मस्वरूप पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करना और छोड़ना द्रव्य - परिवर्तन है । सर्व आकाशप्रदेशों में जन्म मरण करना क्षेत्र- परिवर्तन है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सर्व समयों में जन्म-मरण ग्रहण करना काल-परिवर्तन है । जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट बन्धरूप स्थितिबन्ध होना भाव-परिवर्तन है और सम्पूर्ण आयु के विकल्पों में जन्म-मरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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