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________________ समयसाराधिकारः] [१४६ न नश्यति नैव संसारगत पतति प्रमाददोषणापि परमं तपः कत्तन समर्थस्तथापि शाठयरहितः वाध्याय याद निरन्तरं करोति तथापि कर्मक्षयं करोतीति भावः ॥७३॥ चारित्रस्य प्रधानमंग ध्यानं तदपकारभृतं निद्राजयमाह णिदं जिणेहि णिच्चं णिद्दा खलु नरमचेदणं कुणदि। वट्टज्ज हू पसुत्तो समणो सम्वेसु दोसेसु ॥९७४॥ निद्रां दर्शनावरणकर्मोदयमोहभावं जय तस्या वशं मा गच्छ यतः सा निद्रा नरं खलु स्फुटमचेतनं पूर्वापरविवेकहीनं करोति यतश्च प्रसुप्तः श्रमणो वर्तेत सर्वेषु दोषेषु यस्मान्निद्रयाक्रान्तचित्तः सर्वैरपि प्रमादः सहितो भवति संयतोऽप्यतो निद्राजयं विति ॥९७४|| निद्रां जित्वकाग्रचिन्तानिरोधं कुर्वीतेति प्रतिपादयन्नाह-- जह उसुगारो उसुमुज्जु करई संपिडियेहि णयणेहिं । तह साहू भावेज्जो चित्तं एयग्गभावेण ॥९७५।। यथेषुकार: काण्डकार इषु काण्डं उज्जु करई - ऋजुं करोति प्रगुणं करोति सम्यपिडिताभ्यां संमोलिताभ्यां नयनाम्यां निरुद्धचक्षुरादिप्रसरेण तथा साधुः शुभध्यानार्थं स्वचित्तं मनोव्यापारमेकाग्रभावेन मनोवाक्कायस्थर्यवृत्त्या पंचेंद्रियनिरोधेन च भावयेदभिरमयेदिति ।।६७५।। गर्त में नहीं पड़ता है। अभिप्राय यह है कि यद्यपि कोई साधु परमतप करने में समर्थ नहीं है लेकिन यदि वह शठता रहित निरन्तर स्वाध्याय करता है तो वह कर्मों का क्षय कर देता है। चारित्र का प्रधान अंग ध्यान है और उसके लिए उपकारभूत निद्राजय है, उसे ही बताते हैं गाथार्थ-हे मुनि ! निद्रा को जीतो। निश्चित ही, निद्रा नर को अचेतन कर देती है। क्योंकि सोया हुआ श्रमण सभी दोषों में प्रवर्तन करता है ॥६७४।। आचारवत्ति-दर्शनावरण कर्म के उदय से हुआ मोह भावनिद्रा है। हे साधो ! तुम निद्रा को जीतो, उसके वश में मत होओ क्योंकि वह निद्रा निश्चित ही मनुष्य को अचेतन अर्थात् पूर्वापर विवेकहीन बना देती है। चूंकि निद्रा से व्याप्त चित्तवाला श्रमण सब प्रकार के प्रमादों से युक्त होता है अतः हे संयत ! तुम निद्रा को जीतो ! साधु निद्रा को जीतकर एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान करे ऐसा प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ --जैसे बाणकारक मनुष्य किंचित् बन्द हुए नेत्रों से बाण को सीधा-सरल बनाता है वैसे ही साधु एकाग्रभाव से मन को रोके ॥६७५।। _आचारवत्ति-जैसे बाण बनानेवाला मनुष्य सम्मीलित नेत्रों से जरा-सी आँख मींचकर बाण देखकर उसे सरल बनाता है अर्थात् इधर-उधर न देखते हुए एकटक उसी पर दृष्टि केन्द्रित करके उसे सीधा करता है। वैसे ही साधु शुभध्यान के लिए मन-वचन-काय की स्थिरवतिरूप और पंचेन्द्रिय के निरोधरूप एकाग्रभाव द्वारा अपने मन के व्यापार को रोके अर्थात् अपने मन को किसी एक विषय में रमावे। अथवा जैसे धनुर्धर अपने लक्ष्य पर एकटक दृष्टि रखकर बाण सीधा उसी पर छोड़ता है वैसे ही साधु मन को एकाग्र कर आत्मतत्त्व का चिन्तवन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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