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________________ १४८] निलाबारे मना ध्यानपरश्च भवति, विनयेन समाहितश्च दर्शनादिविनयोपेतश्च भिक्षर्भवत्यतःप्रधानं चारित्रं स्वाध्यायस्ततश्च मुक्तिरिति ।।९७१॥ पुनरपि स्वाध्यायस्य माहात्म्यं तपस्यन्तर्भावं च प्रतिपादयन्नाह-- बारसविधह्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदि?। ण वि अस्थि ण वि य होहदि एज्झायसमं तवोकम्मं ॥९७२॥ द्वादशविधे तपसि साभ्यन्तरबाह्ये कुशल दृष्टे तीर्थकरगणधरादिप्रदर्शिते कृते च नवास्ति न चापि भविष्यति स्वाध्यायसमं स्वाध्यायसदशं अन्यत्तपःकर्मातः स्वाध्यायः परमं तप इति कृत्वा निरन्तरं भावनीय इति ॥७२॥ स्वाध्यायभावनया श्रुतभावना स्यात्तस्याश्च भावनाया: फलं प्रदर्शयन्नाह सूई जहा ससुत्ता ण जस्सदि दु पमाददोसेण । एवं ससुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण ॥९७३॥ यथा सूची लोहमयी शलाका सूक्ष्मापि ससूत्रा सूत्रमयरज्जुसमन्विता न नश्यति न चक्षुर्गोचरतामतिकामति प्रमाददोषेणापि अपस्कारादिमध्ये विस्मृतापि । तथैवं पुरुषोऽपि साधुरिति ससूत्रः श्रुतज्ञानसमन्वितो तथा एकाग्रचित्त होकर ध्यान में तत्पर हो जाते हैं; इसलिए स्वाध्याय नाम का चारित्र प्रधान है क्योंकि उससे वे मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात विनयपूर्वक स्वाध्याय करते समय इन्द्रियों का और मन-वचन-काय का व्यापार रुक जाता है, अन्यत्र नहीं जाता है, उसी में तन्मय हो जाता है। अतः एकाग्रचिन्ता-निरोध रूप ध्यान का लक्षण घटित होने से यह स्वाध्याय मुक्ति का कारण है। पुनरपि स्वाध्याय का माहात्म्य और वह तप में अन्तर्भत है ऐसा प्रतिपादन करते गाथार्थ - गणधर देवादि प्रदर्शित, बाह्य-अन्तरंग से सहित बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय समान तपःकर्म न है और न होगा ही।।६७२।। प्राचारवृत्ति-तीर्थंकर, गणधर आदि देवों ने जिसका वर्णन किया है, जिसमें बाह्य और अभ्यन्तर छह छह भेद हैं ऐसे बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के सदृश अन्य कोई तपःकर्म न है और न होगा ही। अतः स्वाध्याय परमतप है, ऐसा समझकर निरन्तर उसकी भावना करना चाहिए। स्वाध्याय की भावना से श्रुतभावना होती है अतः उस भावना का फल दिखलाते हैं गाथार्थ-जैसे धागे सहित सुई प्रमाद दोष से भी खोती नहीं है ऐसे ही सूत्र के ज्ञान से सहित पुरुष प्रमाद दोष से भी नष्ट नहीं होता है ।।९७३।। आचारवृत्ति - जैसे लोहे से बनी सुई सूक्ष्म होती है फिर भी यदि वह सूत्र सहित अर्थात् धागे से पिरोई हुई है तो नष्ट नहीं होती है अर्थात् प्रमाद के निमित्त से यदि वह कूड़ेकचरे में गिर भी गयी है तो भी आँखों से दिख जाती है, मिल जाती है । उसी प्रकार से सूत्र सहित अर्था । श्रुतज्ञन से समन्वित साधु भी नष्ट नहीं होता है, वह प्रमाद के दोष से भी संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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