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________________ समयसाराधिकारः ] [ १४७ जीवस्य परिणामहेतवो बालवृद्धयुवत्वाभावेन नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवत्वभावेन च कर्मत्वेन कर्मस्वरूपेण पुद् गला रूपरसगन्धस्पर्श वन्तः परमाणवः परिणमन्ति पर्यायं गृह्णन्ति । जीवः पुनर्ज्ञान परिणतो नैव कर्म समादत्ते नैव कर्मभावेन पुद्गलान् गृह्णातीति । यतोऽतश्चारित्रं ज्ञानदर्शनपूर्वकं भावनीयमिति ॥ ९६६ ॥ यस्मात् - जाणविण्णा संपण्णी झाणज्झणतवेजुदो । कसायगारवम्मुक्का संसारं तरदे लहुं ॥ ७० ॥ ज्ञानं यथावस्थितवस्तुपरिच्छेदकं विज्ञानं चारित्रं ताभ्यां ज्ञानविशेषेण वा सम्पन्नः परिणतः ध्यानेनैकाग्रचिन्तनिरोधेनाध्ययनेन वाचनापृच्छनादिक्रियया तपसा च द्वादशप्रकारेण युक्तः परिणतः कषायगोवोन्मुक्तश्च लघु शीघ्रं संसारं भवसमुद्रं तरति समुल्लंघयतीति ततो रत्नत्रयं सारभूतमिति ॥ ९७०॥ ननु स्वाध्याय भावनया कथं संसारस्तीर्यंत इत्याशंकायामाह - सभायं कुवंतो पंचिदियसं पुडो तिगुत्तो य । हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू ॥७१॥ यतः स्वाध्यायं शोभनशास्त्राभ्यासवाचनादिकं कुर्वन् पंचेन्द्रियसंवृतस्त्रिगुप्तश्च भवति. एकाग्र आचारवृत्ति - रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले पुद्गल परमाणु जीव के परिणाम का निमित्त पाकर बालक, वृद्ध, युवा भाव से तथा नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने के भाव से कर्म रूप से परिणमन करते हैं अर्थात् ये पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप परिणत जाते हैं । किन्तु यदि जीव ज्ञानपरिणत हो रहा है तब तो वह कर्मभाव से पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता है । इसलिए चारित्र को ज्ञान दर्शन पूर्वक ही भावित करना चाहिए । अर्थात् चारित्रयुक्त ज्ञानी जीव को कर्मों का बन्ध नहीं होता है। क्योंकि - गाथार्थ - ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न एवं ध्यान, अध्ययन और तप से युक्त तथा कषाय और गौरव से रहित मुनि शीघ्र ही संसार को पार कर लेते हैं ।। ६७०॥ आचारवृत्ति - यथावस्थित वस्तु को जाननेवाला ज्ञान है और चारित्र को विज्ञान कहा है । इन दोनों से समन्वित अथवा ज्ञान विशेष से परिणत हुए मुनि एकाग्र चिन्तानिरोधरूप ध्यान, वाचना. पृच्छना आदि क्रिया रूप अध्ययन एवं बारह प्रकार के तपों को करते हुए तथा कषाय और गौरव से रहित होकर शीघ्र ही भवसमुद्र से तिर जाते हैं । इसलिए रत्नत्रय ही सारभूत है । स्वाध्याय की भावना से कैसे संसार तिरा जाता है, सो ही बताते हैं गाथार्थ - विनय से सहित मुनि स्वाध्याय करते हुए पंचेन्द्रियों को संकुचित कर तीनगुप्तियुक्त और एकाग्रमना हो जाते हैं ।। ६७१।। प्रचारवृत्ति - दर्शन, विना आदि विनयों से संयुक्त मुनि उत्तम शास्त्रों का अभ्यास और वाचना आदि करते हुए पंचेन्द्रियों को संवृत कर लेते हैं एवं तीनगुप्ति सहित हो जाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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