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________________ समयसाराधिकारः] श्चाग्न्यादिसंयोगेनोष्णो विरसश्चेति ॥९५६।। तथैतेश्च संसर्ग वर्जयेदिति प्रतिपादयन्नाह चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्टिमंसपरिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो ॥१५७॥ चंडो रोद्रो मारणात्मको विषतरुरिव, चपलोऽस्थिरप्रकृतिर्वाचिकादिक्रियायां स्थैर्यहीनः, मंदश्चारित्रालसस्तथा साधुः पृष्ठमांसप्रतिसेवी पश्चाद्दोषकथनशीलः पैशुन्यतत्परः, गौरवबहुल: कषायबहुलश्च पदं पदं प्रतिरोषणशीलः, दुराश्रय एवंभूतः श्रमणो दुःसेव्यो भवति केनाप्युपकारेणात्मीयः कतुं न शक्यते यत एवं.. भूतं श्रमणं न सेवयेदिति संबन्धः ॥६५७॥ तथा वेज्जावच्चविहूणं विणयविहूणं च दुस्सुविकुसीलं। समणं विरागहीणं 'सुजमो साधू ण सेविज्ज ॥८॥ वैयावृत्त्यविहीनं ग्लानदुर्बलव्याधितादीनामुपकाररहितं, विनयविहीनं पंचप्रकारविनयरहितं', दुःश्रुति दुष्टश्रुतिसमन्वितं, कुशीलं कुत्सिताचरणशील, श्रमणं नाग्न्याद्युपेतमपि, विरागहीनं रागोत्कटं, पूर्वोक्तः घड़े का जल सुगन्धमय और शीतल हो जाता है और अग्नि आदि के संयोग से उष्ण तथा विरस हो जाता है। इनके साथ संसर्ग छोड़ दें, सो ही बताते हैं गाथार्थ-जो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गौरव और कषाय की बहुलतावाला है वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है ।। ६५७ ।। प्राचारवृत्ति-जो साधु रौद्रस्वभावी है अर्थात् विषवृक्ष के समान मारनेवाला है, अस्थिर प्रकृति का है अर्थात् जिसकी वचन आदि क्रियाओं में स्थिरता नहीं है, जो चारित्र में आलसी है तथा पीठ पीछे दोषों को कहनेवाला है, चुगली करने में तत्पर है, गौरव की बहुलता युक्त है, और तीव्रकषाय वृत्तिवाला है अर्थात् पद-पद पर रोष करनेवाला है, ऐसा श्रमण दु:सेव्य है अर्थात् किसी भी उपकार से उसे आत्मीय करना शक्य नहीं है। ऐसे श्रमण का मुनि आश्रय नहीं लें-ऐसा सम्बन्ध लगा लेना चाहिए। उसी को और स्पष्ट करते हैं गाथार्थ–सुचारित्रवान् साधु वैयावृत्य से हीन, विनय से हीन, खोटे शास्त्र से युक्त, कुशील और वैराग्य से हीन श्रमण का आश्रय न लेवें ॥६५॥ - आचारवृत्ति-जो ग्लान, दुर्बल और व्याधि से पीड़ित मुनियों का उपकार नहीं करता है, पांच प्रकार के विनय से रहित है, खोटे शास्त्रों से सहित है, कुशील-कुत्सित माचरणवाला है और राग की उत्कटता से सहित है ऐसा श्रमण नग्नता आदि से सहित है तो भी सुचारित्र १. क० सुसंजदो साहू। २. क विनयविहीनं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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