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________________ १४२ ] साधुः संयतो न सेवेत न कदाचिदप्याश्रयेद् दुष्टाश्रयत्वादिति ॥ ५८ ॥ तथा- दंभं परपरिवादं णिसुणत्तण पावसुत्तपडिसेवं । farasi पि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज ॥१५६॥ दम्भं वचनशीलं कुटिलभावं, परपरिवादिनं परोपतापिनं, पैशुन्योपपन्नं 'दोषोद्भावनेन तत्परं, पापसूत्र प्रतिसेविनं मारणोच्चाटन वशीकरण मंत्रयंत्रतंत्रठक शास्त्र राजपुत्र कोक्क वात्स्यायन पितृपिंडविधायकं सूत्रं मांसादिविधायक वैद्य सावद्यज्योतिषशास्त्रादिरतमित्थंभूतं मुनिं चिरप्रव्रजितमपि आरंभयुतं च न कदाचिदपि सेवेत न तेन सह संगं कुर्यादिति ॥ ५६ ॥ तथा चिरपoasi पि मुणी अपुट्ठधम्मं असंपुढं णीचं । लोइय लोगुत्तरियं अयाणमाणं विवज्जेज्ज ॥ १६०॥ तथा चिरप्रव्रजितं बहुकालीनं श्रमणं, अपुष्टधर्मं मिथ्यात्वोपेतं असंवृतं स्वेच्छावचनवादिनं नीचं नीचकर्मकरं लौकिकं व्यापारं लोकोत्तरं च व्यापारं अजानन्तं लोकविराधनपरं परलोकनाशनपरं च श्रमणं धारी साधु उसका आश्रय न ले, कदाचित् भी ऐसे मुनि की संगति न करे क्योंकि यह दुष्ट आश्रय वाला है । [ मूलाधारे उसी को और भी कहते हैं गाथार्थ - मायायुक्त, अन्य का निन्दक, पैशुन्यकारक, पापसूत्रों के अनुरूप प्रवृत्ति करनेवाला और आरम्भसहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना न करे ॥ ६५६ ॥ श्राचारवृत्ति - दंभ वचन के स्वभाववाला अर्थात् कुटिल परिणामी, पर की निन्दा करनेवाला, दूसरों के दोषों को प्रकट करने में तत्पर या चुगलखोर, मारण, उच्चाटन, वशीकरण, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, ठगशास्त्र, राजपुत्रशास्त्र, कोकशास्त्र, वात्स्यायनशास्त्र, पितरों के लिए पिण्ड देने के कथन करनेवाले शास्त्र, मांसादि के गुणविधायक वैद्यकशास्त्र, सावद्यशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र में रत हुए मुनि से, अर्थात् जो भले ही चिरकाल से दीक्षित है किन्तु उपर्युक्त दोषों से युक्त है तथा आरम्भ करनेवाला है उससे, कभी भी संसर्ग न करे । उसी को और भी कहते हैं गाथार्थ - मिथ्यात्व युक्त, स्वेच्छाचारी, नीचकार्ययुक्त, लौकिक व्यापारयुक्त, लोकोतर व्यापार को नहीं जानते, चिरकाल से दीक्षित भी वाले मुनि को छोड़ देवे ॥ ६० ॥ आचारवृत्ति - जो साधु अपुष्टधर्म - मिथ्यात्व से सहित है, स्वेच्छापूर्वक वचन बोलनेवाला है, नीच कार्य करनेवाला है, लौकिक क्रियाओं में तत्पर है और लोकोत्तर व्यापार को १. क० दोषाणां दोषाद्भावनेन तत्परं । ख० अदोषोद्भावेन । २. क० नीचकमंरतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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