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[ मूलाचारे
तत्र च शय्या निषद्या स्वाध्याय आहारः कायिकादिक्रिया प्रतिक्रमादिकं च न 'कल्प्यते युक्ताचारस्य साधोरिति ॥५४॥ कुतो यत:
होविं दुगंछा दुविहा ववहारादो तधा य परमठे।
पयदेण य परमठे ववहारेण य तहा पच्छा ।।९५५॥ तत्रार्थिकोपाश्रये वसतः साधोद्विप्रकारापि जुगुप्सा, व्यवहाररूपा तथा परमार्था च, लोकापवादो व्यवहाररूपा, व्रतभंगश्च परमार्थतः यत्नेन परमार्थरूपा जायते जुगुप्सा, व्यवहारतश्च ततोऽथवा व्यवहारतो भवति पश्चात्परमार्थतश्चेति ॥१५॥ तथा संसर्गजं दोषमाह
वड्ढदि बोही संसग्गेणं तह पुणो विणस्सेदि ।
संसग्गविसेसेण दु उप्पलगंधो जहा कुंभो ॥६५६॥ संसर्गेण संपर्केण बोधिः सम्यग्दर्शनादिशुद्धिर्वद्धते तथा पुनरपि विनश्यति च। सदाचारप्रसंगेन वर्द्धते कुत्सिताचारसंपर्केण विनश्यति, यथा संसर्गविशेषेणोत्पलगंधः जलकुंभ उत्पलादिसंपर्केण सुगंधः शीतलक्रिया–मल-मूत्र विसर्जन आदि करना तथा प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करना भी युक्ताचारी साधु को ठीक नहीं है।
उचित क्यों नहीं है सो ही बताते हैं
गाथार्थ-व्यवहार से तथा परमार्थ से दो प्रकार से निन्दा होती है। पहले व्यवहार से पश्चात् परमार्थ से निन्दा निश्चित ही होती है ।।९५५॥
आचारवत्ति-आर्यिकाओं की वसतिका में रहनेवाले साधु की दो प्रकार की जुगुप्सा होती है-व्यवहाररूप और परमार्थरूप । लोकापवाद होना व्यवहार निन्दा है और व्रतभंग हो जाना परमार्थ जुगुप्सा है। यत्न से अर्थात् पारस्परिक आकर्षण बढ़ानेवाले प्रयास से निश्चित ही परमार्थ जुगुप्सा होती है। उसके बाद व्यवहार से होती । अथवा पहले व्यवहार में जुगुप्सा होती है पश्चात् परमार्थ से हानि होती है।
गाथार्थ-आर्यिकाओं के स्थान में आने-जाने से मुनियों की निन्दा होती है यह व्यवहार जगुप्सा है यह तो होती ही है, पुनः व्रतों में हानि होना परमार्थ जुगुप्सा है सो भी सम्भव है। यह न भी हो तो भी व्यवहार में निन्दा तो होती ही है।
तथा संसर्ग से होनेवाले दोषों को कहते हैं
गाथार्थ-संसर्ग से बोधि बढ़ती है तथा पुनः नष्ट भी हो जाती है। जैसे संसर्ग विशेष से जल का घड़ा कमल की सुगन्धयुक्त हो जाता है ।। ६५६ ।।।
आचारवृत्ति-सदाचार के सम्पर्क से सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि बढ़ जाती है, उसी प्रकार पुनः कुत्सित आचारवाले के सम्पर्क से नष्ट भी हो जाती है, जैसे कमल आदि के संसर्ग से
१.क. कल्पते। २.० ततः पश्चात्परमार्थत श्चेति ।
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