SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसाराधिकारः ] [ १३० गिरिकंदरां श्मशानं शून्यागारं वृक्षमूलं च धीरो भिक्षुनिषेवयतु भावयतु यत एतत्स्थानं वैराग्यबहुलं चारित्रप्रवृत्तिहेतुकमिति ॥५२॥ तथैतच्च क्षेत्रं वर्जयत्विति कथनायाह विदिविहूणं खेत्तं णिवदी वा जत्थ दुट्ठओ होज्ज । पव्वज्जा च ण लब्भइ संजमघादो य तं वज्जे ।। ६५३ ।। नृपतिविहीनं यत् क्षेत्रं यस्मिन् देशे नगरे ग्रामे गृहे वा प्रभुर्नास्ति स्वेच्छ्या प्रवर्त्तते सर्वो जनः, यत्र च क्षेत्रे नृपतिर्दुष्टः यस्मिश्च देशे नगरे ग्रामे गृहे वा स्वामी दुष्टः कदर्थनशीलो धर्मविराधनप्रवणः, यत्र ' च प्रव्रज्या न लभ्यते न प्राप्यते, यत्र यस्मिंश्च देशे शिष्याः श्रोतारोऽध्येतारो व्रतरक्षणतन्निष्ठा दीक्षा ग्रहणशीलाश्च न संभवंति, संयमाघातश्च यत्र बाहुल्येनातीचारबहुलं तदेतत्सर्वं क्षेत्रं च वर्जयेद् यत्नेन परिहरतु साधुरित्युपदेशः || ६५३ ॥ तथैतदपि वर्जयेत् — thore विरदाणं विरदीणमुवासर्याह्मि चेट्टे दूं । तत्थ णिसेज्जउवट्टणसज्झायाहारवोसरणे ॥१५४॥ विरतानां नो कल्प्यते न युज्यते विरतीनामार्थिकाणामुपाश्रये स्थातुं कालांतरं धर्मकार्यमन्तरेण, प्राचारवृत्ति - धीर मुनि पर्वतों की कन्दरा में, श्मशान में, शून्य मकानों में और वृक्षों के नीचे निवास करें, क्योंकि ये स्थान वैराग्य बहुल होने से चारित्रकी प्रवृत्ति में निमित्त हैं । उसी प्रकार से इन क्षेत्रों का त्याग करें, इसका कथन बताते हैं गाथार्थ- राज से हीन क्षेत्र अथवा जहाँ पर राजा दुष्ट हो, जहाँ पर दीक्षा न मिलती हो और जहाँ पर संयम का घात हो वह क्षेत्र छोड़ दें || ६५३ || आचारवृत्ति - जिस देश में, नगर में, ग्राम में या घर में स्वामी न हो- सभी लोग स्वेच्छा से प्रवृत्ति करते हों, अथवा जिस देश का राजा दुष्ट हो अर्थात जिस देश, नगर, गाँव या घर का मालिक धर्म की विराधना में कुशल हो, कुत्सितस्वभावी हो, जहाँ पर दीक्षा न प्राप्त होती हो अर्थात् जिस देश में शिष्य, श्रोता, अध्ययन करनेवाले, व्रतों के रक्षण में तत्पर तथा दीक्षा को ग्रहण करनेवाले लोग सम्भव न हों, जहाँ पर संयम का घात होता हो अर्थात् व्रतों में बहुत अतीचार लगते हों, साधु ऐसे क्षेत्र का प्रयत्नपूर्वक परिहार कर दें - ऐसा आचार्यों का उपदेश है । तथा इन स्थानों को भी छोड़ दें गाथार्थ - आर्यिकाओं के उपाश्रय में मुनियों का रहना उचित नहीं है । वहाँ पर बैठना, उद्वर्तन करना, स्वाध्याय, आहार और व्युत्सर्ग भी करना उचित नहीं है । ६५४ ॥ आचारवृत्ति - आर्यिकाओं की वसतिका में मुनियों को धर्म कार्य के अतिरिक्त कार्य . से रहना युक्त नहीं है । वहाँ पर सोना, बैठना, स्वाध्याय करना, आहार करना, शरीर सम्बन्धी १. क० प्रव्रज्या च न लभ्यते यत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy