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[ मूलाचारे
भिक्षुः संयमं चारित्रमविराधयन्नपीडयन् करोतु व्यवहारशोधनं लोकव्यवहारशोधनं प्रायश्चितं च व्यवहारजुगुप्सां च येन कर्मगा लोके विशिष्टजनमध्ये कुत्सितो भवति तत्कर्म परिहरतु व्रतान्यहिंसादीनि च अभंजयन्नखंडयन् । किमुक्त' भवति - संयमं मा विराधयतु व्यवहारशुद्धि च करोतु व्रतानि मा 'भंजयतु व्यवहारजुगुप्सां च परिहरतु साधुरिति ॥ १५० ॥ द्रव्यशुद्धि विधाय क्षेत्रशुद्ध यर्थमाह
जत्थ कसायुपत्तिरर्भात्तदियदारइत्थिजणबहुलं । दुक्खमुवसग्गबहुलं भिक्खू खेत्तं विवज्जेज्ज ॥६५१ ॥
यस्मिन् क्षत्रे कषायाणामुत्पत्तिः प्रादुर्भावस्तथा यस्मिन् क्षेत्रेऽभक्तिरादराभाव: शाठ्यबाहुल्यं, यत्र चेन्द्रियद्वार बाहुल्यमिन्द्रियद्वाराणां चक्षुरादीनां बाहुल्यं सुष्ठु रागकारणविषयप्राचुर्यं स्त्रीजनबाहुल्यं च यत्र स्त्रीजनो बाहुल्येन शृंगाराकारविकार विषयलील हाव भावनृत्त गीतवादित्रहासापहासादिनिष्ठस्तथा दुःखं क्षेत्र क्लेशप्रचुरं, उपसर्गबहुलं बाहुल्येनोसर्गोपेतं च तदेतत्सर्वं क्षेत्रं भिक्षुः साधुविवर्जयतु सम्यग्दर्शनादिशुद्धिकरणायेति ॥ ५१ ॥
इत्थंभूतं च क्षेत्रं सेवयत्विति कथयन्नाह
गिरिकंदर मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं विरागबहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ ॥ १५२ ॥
आचारवृत्ति - साधु चारित्र की हानि न करते हुए लोक व्यवहार के शोधनरूप प्रायश्चित्त करें और जिस कार्य से लोक में विशिष्ट जनों में निन्दा होती है वह कार्य छोड़ दें एवं अहिंसा आदि व्रतों को भंग न करें। तात्पर्य यह कि साधु संयम की विराधना नहीं करें, व्यवहार-शुद्धि का पालन करें, व्रतों में दोष नहीं लगाएँ और लोकनिन्दा का परिहार करें ।
द्रव्यशुद्धि कहकर अब क्षेत्रशुद्धि कहते हैं
गाथार्थ - जहाँ पर कषायों की उत्पत्ति हो, भक्ति न हो, इन्द्रियों के द्वार और स्त्रीजन की बहुलता हो, दुःख हो, उपसर्ग की बहुलता हो उस क्षेत्र को मुनि छोड़ दें ।। ६५१ ॥
श्राचारवृत्ति - जिस क्षेत्र में कषायों की उत्पत्ति होती हो, जिस क्षेत्र में भक्तिआदर का अभाव हो अर्थात लोगों में शठता की बहुलता हो, जहाँ पर चक्षु आदि इन्द्रियों के लिए राग के कारणभूत विषयों की प्रचुरता हो, जहाँ पर शृंगार-आकार, विकार, विषय, लीला, हावभाव, नृत्य, गीत, वादित्र, हास्य, उपहास आदि में तत्पर स्त्रियों का बाहुल्य हो, जहाँ पर क्लेश अधिक हो एवं जिस क्षेत्र में बहुलता से उपसर्ग होता हो ऐसे क्षेत्र का मुनि सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि के लिए परिहार कर दें ।
इस प्रकार के क्षेत्र का सेवन करें सो ही बताते हैं
गाथार्थ - धीर मुनि पर्वत की कन्दरा, श्मशान, शून्य मकान और वृक्ष के मूल ऐसे वैराग्य की अधिकता युक्त स्थान का सेवन करें ।। ५२ ।।
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१. क० भनक्त । २. वेष ।
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