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________________ समयसाराधिकारः । [ १३५ भाविनीति । किमिदं ? चुदच्छिदः कर्मेव--एकत्र वेष्टयत्यन्यत्रोद्वेष्टयति तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिन च करोतीति ॥९४२॥ सन्निपातेन शोभनक्रियाणां कर्मक्षयो भवतीति दृष्टान्तेन पोषयन्नाह वेज्जादुरभेसज्जापरिचारयसंपदा जहारोगं । गुरुसिस्सरयणसाहणसंपत्तीए तहा मोक्खो॥६४३॥ वैद्यो भिषक् आतुरो व्याधितः भैषज्यमौषधं परिचारका वैयावृत्त्यकरा एतेषां संपत्संयोगस्तया संपदा यथाऽरोग्यं व्याधितस्य रोगाभावः संजायते तथा गुरुराचार्य: शिष्यो वैराग्यपरो विनेयो रत्नानि सम्यग्दर्शनादिसाधनानि पुस्तककुंडिकापिच्छिकादीन्येतेषां संपत्तिः संप्राप्तिः संयोगस्तया तेनैव' प्रकारेण मोक्षो भवतीति ।।९४३ दृष्टान्तं दार्टान्तेन योजयन्नाह आइरिओ वि य वेज्जो सिस्सो रोगी दु मेसजं चरिया। खेत्त बल काल पुरिसं णाऊण सणि दढं कुज्जा ॥४४॥ आचार्यो नाम वैद्यः शिष्यश्च रोगी भेषजं चर्या क्षेत्रं शीतमुष्णादिकं बलं शरीरसामादिकं कालः प्रावृडादिकः पुरुषो जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्न एतान् सर्वान् ज्ञात्वा शनै गकुलतामन्तरेण' को वेष्टित करता और दूसरी तरफ से खोलता रहता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि तप के द्वारा निर्जरा करता और असंयम के द्वारा अनेक विध कर्मों को ग्रहण करता रहता है और उन्हें दृढ़ भी कर लेता है । इसलिए दो दृष्टान्त दिये गये हैं। शोभन क्रियाओं के संयोग से कर्मक्षय होता है, ऐसा दृष्टान्त से पोषित करते हैं गाथार्थ-जैसे वैद्य, रोगी, औषधि और परिचारक के संयोग से आरोग्य होता है वैसे ही गुरु, शिष्य, रत्नत्रय और साधन के संयोग से मोक्ष होता है ।।६४३॥ प्राचारवृत्ति-वैद्य, रोगी, औषधि और वैयावृत्त्य करनेवाले–इनके सम्पत् अर्थात् संयोग से रोगी के रोग का अभाव हो जाता है वैसे ही गुरु-आचार्य, वैराग्य में तत्पर शिष्य, अन्तरंग साधन सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय तथा बाह्य साधन पुस्तक, पिच्छिका, कमण्डलु आदि के संयोग से ही मोक्ष होता है। अब दृष्टान्त को दान्ति में घटित करते हैं गाथार्थ-आचार्य वैद्य हैं, शिष्य रोगी है, औषधि चर्या है। इन्हें तथा क्षेत्र, बल, काल और पुरुष को जानकर धीरे-धीरे इनमें दृढ़ करे ॥६४४॥ आचारवृत्ति -आचार्यदेव वैद्य हैं, शिष्य रोगी है, औषधि निर्दोष भिक्षा चर्या है; शीत, उष्ण आदि सहित प्रदेश क्षेत्र हैं, शरीर की सामर्थ्य आदि बल है, वर्षा आदि काल हैं एवं जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट भेद रूप पुरुष होते हैं। इन सभी को जानकर आकुलता के बिना आचार्य १. क० येनैव। २. क० राकुलमन्तरेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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