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________________ १३४ ] [ मूलाचार वर्तते, तद्यथा- रूपादयो गुणा रूपरसगंधस्पर्शसंख्यापृथक्त्वपरिणामादीनि गुणशब्देनोच्यन्ते, तथा गुणभूता वयमत्र नगरे इत्यत्राप्रधानवाची गुणशब्दस्तथा यस्य गुणस्य भावादिति विशेषणे वर्त्तते तथा गुणोऽनेन कृत इत्यत्रोपकारे वर्तते इहोपकारे वर्तमानो गह्यते । तेन तपो महोपकारं भवति । कर्मनिर्मलनं कर्तुमसमर्थं तपोऽसंयतस्य सम्यग्दर्शनान्वितस्यापि कुतो यस्माद् भवति हस्तिस्नानम् । हु शब्द एवकारार्थः स च हस्तिस्नानेनाभिसंवन्धनीयो हस्तिस्नानमेवेति। यथा हस्ती स्नातोऽपि न नैर्मल्यं वहति पुनरपि करेणाजितपांशुपटलेनात्मानं मलिनयति तद्वत्तपसा निजीणेऽपि कर्माशे बहुतरादानं कर्मणोऽसंयममुखेनेति । दृष्टान्तान्तरमप्याचष्टे-चुंदच्छिदकर्म चुदं काष्ठं छिनत्तीति चुंदच्छिद्रज्जुस्तस्याः कर्म क्रिया, यथा चुंदच्छिद्रज्जोरुद्वेष्टनं वेष्टनं च भवति तद्वत्तस्यासंयतस्य तत्तपः अथवा चुंदच्छुदगं व-चुंदच्युतकमिव मंथनचर्मपालिकेव तत्संयमहीनं तपः । दृष्टान्तद्वयोपन्यासः किमर्थ इति चेन्नैष दोषः, अपगतात्मकर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः, आर्द्रतनुतया हि बहुतरमुपादत्ते. रजः, बंधरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति नेतरा बंधसह रुपादयो गुणाः इस सूत्र में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, पृथक्त्व और परिमाण आदि गुण शब्द से कहे जाते हैं। ‘गुणभूता वयमत्र नगरे' अर्थात् इस नगर में हम गौण हैं- यहाँ पर अप्रधानवाची गुण शब्द है । 'यस्य गुणस्य भावात्' यहाँ पर विशेषण अर्थ में गुण शब्द है। इसी प्रकार 'गुणोऽनेन कृतः' इसने उपकार किया है-यहाँ पर गुण शब्द उपकार अर्थ में है। इस गाथा में भी गण शब्द को उपकार अर्थ में लेना चाहिए। अतः वह अविरत सम्यग्दष्टि का तप महान उपकार करनेवाला नहीं हैं ऐसा अर्थ लेना, क्योंकि सम्यक्त्व से सहित होते हा असंयत का तप कर्मों के निर्मूलन में समर्थ नहीं है। वह तो हस्तिस्नान ही है। यहाँ पर 'ह' शब्द एवकारवाची है । जैसे हाथी स्नान करके भी स्वच्छता को धारण नहीं करता है किन्तु वह पुनः संड से धूली को लेकर अपने ऊपर डाल लेता है उसी प्रकार से तप के द्वारा कर्मों का अंश निर्जीर्ण हो जाने पर भी असंयत के असंयम के कारण बहुत से कर्मों का आस्रव होता रहता है। एक दूसरा दृष्टान्त भी देते हुए कहते हैं चंद-काष्ठ को छेदनेवाला चुंदच्छिद् अर्थात् रस्सी, उसका कर्म-क्रिया चंदच्छितकर्म है । जैसे काष्ठ को छेदनेवाली रस्सी खुलती और वेष्टित होती रहती है, अर्थात् जैसे लकड़ी में छेदकरने वाले वर्मा की रस्सी उसमें छेद करते समय एक तरफ से खुलती और दूसरी तरफ से बंधती रहती है उसी प्रकार से असंयत जन का तपश्चरण एक तरफ से कर्मों को नष्ट करता और असंयम द्वारा दूसरी तरफ से कर्मों को बाँधता रहता है । अथवा 'चुदच्युत कमिव' अर्थात् मंथन चर्मपालिका के समान वह तप संयमहीन तप होता है । यहाँ पर दो दृष्टान्त क्यों दिये गये हैं ? इसमें कोई दोष नहीं है। तप द्वारा एक तरफ से कर्म के दूर होने पर भी असंयम के निमित्त से बहुत से कर्मों का ग्रहण हो जाता है इस बात को दिखलाने के लिए हस्तिस्नान का दष्टान्त दिया है कि हाथी स्नान से गीले शरीर पर फिर से बहुत-सी रज लपेट लेता है। तथा बन्ध से रहित निर्जरा ही स्वास्थ्य को प्राप्त कराती है, दूसरी निर्जरा नहीं क्योंकि वह बन्ध के साथ होनेवाली निर्जरा है। जैसे कि लकड़ी में छेद करनेवाला वर्मा एक तरफ से रस्सी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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