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शिष्यमाचार्यश्च यथारोग्ययुक्तं कुर्यादिति चर्यो षधं कथनीयमिति ॥ ९४४ ॥
तत्कथमित्याह -
भिक्खं सरीरजोगं सुभत्तिजुत्तेण फासूयं दिण्णं । दoryमाणं खेत्तं कालं भावं च णादूण ॥९४५॥
rantstusसुद्ध काय सत्थं च एसणासुद्ध ं । दसवोसविप्पमुक्कं चोद्दसमलवज्जियं भुंजे ॥ १४६॥
भक्तियुक्त न शरीरयोग्यं भैक्ष्यं प्रासुकं प्रदत्तं नवकोटिपरिशुद्ध प्रासुकं निरवद्यं प्रशस्तं कुत्सादिदोषरहितमेषणा समितिशुद्ध दशदोषविप्रमुक्तं चतुर्दशमलवर्जितं च द्रम्यप्रमाणं क्षेत्रं कालं भावं च ज्ञात्वा परिणाममन्तरेण भुंजीतेति ॥ ६४५-६४६ ॥
तथा
[ मूलाचारे
आहारेदु तवस्सी विगदगालं विगदधूमं च । जत्ता साहणमेत्तं जवणाहारं विगदरागो ॥ १४७॥
आहार, किं विशिष्टं ? विगतांगारं विगतधूमं यात्रा साधनमात्रं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्रतिपालननिमित्तं यवनाहारं क्षुधोपशमनमात्रं विगतरागः सन्नाकांक्षा रहिस्त पस्वी वैराग्य पर आहरेदभ्यवहरेदिति ॥ ६४७|| शिष्य को चर्या रूपी औषधि का प्रयोग कराए ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वैद्य रोगी को आरोग्य हेतु औषधि प्रयोग कराकर स्वस्थ कर देता है ।
वह कैसे ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ - जो श्रेष्ठ भक्ति युक्त श्रावक के द्वारा दिया गया प्रासुक और शरीर के अनुकूल हो, द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र, काल और भाव को जानकर नव कोटि से विशुद्ध, निर्दोष, प्रशस्त, षण समिति से शुद्ध, दश दोष और चौदह मल-दोषों से रहित हो ऐसा आहार (मुनि) ग्रहण करे ।। ६४५- ६४६ ॥
आचारवृत्ति--सुभक्ति से युक्त श्रावक के द्वारा जो दिया गया है, अपने शरीर के योग्य है, प्रासुक है, नवकोटि से परिशुद्ध है, निर्दोष है, निन्दा आदि दोषों से रहित होने से प्रशस्त है, जो षणा समिति से शुद्ध है, दश दोषों से वर्जित है एवं चौदह मलदोषों से रहित है ऐसे आहार को साधु द्रव्य- प्रमाण, क्षेत्र काल एवं भाव को जानकर परिणाम के बिना ही ग्रहण करे ।
इसी की और भी कहते हैं
गाथार्थ - अंगारदोष रहित, धूमदोष रहित, मोक्ष-यात्रा के लिए साधनमात्र और क्षुधा का उपशामक आहार वीतराग तपस्वी ग्रहण करे ॥ ६४७ ॥
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आचारवृत्ति - अंगार दोष और धूमदोष रहित, सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र के पालन निमित्त क्षुधाव्याधि का उपशमन करनेवाला आहार वैराग्य में तत्पर, आकांक्षा रहित तपस्वी स्वीकार करे ।
भावार्थ - गृद्धि - आसक्ति से युक्त आहार लेना अंगारदोष है और निन्दा करते हुए आहार लेना धूम दोष है । साधु इन दोषों से रहित आहार लेते हैं ।
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