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________________ समयसाराधिकारः ] [ १३१ प्राकद्रव्ये 'सत्यपि योऽधः कर्मपरिणतः स बंधको भणित आगमे । यदि पुनः शुद्धं मृगयमाणोऽधःकर्मण्यप्यसो शुद्धः परिणामशुद्धेरिति ॥९३६॥ तथा भावुग्गमो यदुविहो सत्थपरिणाम अप्पसत्थोति । सुद्धे सुद्धभावो होदि 'उवद्वावणं पायच्छित्तं ॥ ३७॥ भावोद्गमश्च भावदोषश्च द्विप्रकारः प्रशस्तपरिणाम अप्रशस्तपरिणमश्च तत्र शुद्धे वस्तुनि यद्यशुद्धभावं करोति तत्रोपस्थापनप्रायश्चित्तं भवतीति ॥ ६३७॥ तस्मात् - फासुगवा फागउवधि तह दो वि अत्तसोधीए । जो वेदि जो य गिण्हदि दोन्हं पि महम्फलं होई ॥६३८ ॥ यत एवं विशुद्धभावेन कर्मक्षयस्ततः प्रासुकदानं निरवद्य भैक्ष्यं प्रासुकोपधि हिंसादिदोषरहितोपकरणं च द्वयमपि तथात्मशुद्ध्या विशुद्धपरिणामेन यो ददाति यश्च गृह्णाति तयोर्द्वयोरपि महत्फलं भवति, यत्किचिद् आचारवृत्ति - प्रासुक द्रव्य के होने पर भी जो साधु अधः कर्म के भाव से परिणत है। वह बन्ध को करने वाला हो जाता है, ऐसा आगम कहा है । यदि पुनः शुद्ध आहार का अन्वेषण करते-करते भी अध:कर्म से युक्त आहार मिल गया तो भी वह शुद्ध है क्योंकि उसके परिणाम शुद्ध हैं। अर्थात् उद्गम आदि दोषों से रहित आहार की खोज में भी मिला अधः कर्म से सदोष आहार यदि उसे मालूम नहीं है तो निर्दोष है । और यदि आहार निर्दोष है तथापि उसने उसे उद्गम आदि दोषों से युक्त सदोष समझकर ग्रहण किया है तो वह कर्म बन्ध को करने वाला ही है । उसी बात को स्पष्ट करते हैं गाथार्थ - भावदोष दो प्रकार के हैं, एक प्रशस्त परिणाम रूप और दूसरा अप्रशस्त परिणाम रूप । शुद्ध में अशुद्धभाव करता हुआ उपस्थापन प्रायश्चित्त प्राप्त होता है ।। ६३७ ।। आचारवृत्ति-भावोद्गम-भावदोष के दो भेद हैं- प्रशस्त परिणाम और अप्रशस्त परिणाम । उनमें से यदि शुद्ध वस्तु में अशुद्ध भाव करता है तो उसे उपस्थापन नाम का प्रायश्चित्त होता है । 1 इसलिए कहते हैं गाथार्थ - जो प्रासु दान या प्रासुक उपकरण या दोनों को भी आत्म शुद्धि से देता है और ग्रहण करता है उन दोनों को ही महाफल होता है ॥ १३८ ॥ Jain Education International आचारवृत्ति - इस तरह विशुद्ध भावों से कर्मों का क्षय होता है इसलिए जो निर्दोष आहार या हिंसादिदोष रहित - निर्दोष उपकरण या दोनों भी विशुद्ध परिणामों से मुनि को देता है और जो मुनि ऐसे निर्दोष आहार, उपकरण आदि ग्रहण करता है उन दोनों को ही १. ० प्रासु द्रव्येऽपि क । २. क० उपट्ठाण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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