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[ मूलाचार
आहारादिकं शोभनं निरवद्यं वातपित्तश्लेष्मोपशमनकारणं सर्वरसोपेतं तन्मया प्रतिग्रहादिपूर्वकं श्रद्धादिगुणसमन्वितं दातव्यमिति तद्दातृत्वशुद्धिः, मया सर्वोऽप्याहारादिविधिस्त्याज्यः किमनेन शोभनाहारेण गृहीतेन यत्किचित्प्राकं गृहीत्वा कुक्षिपूरणं कर्त्तव्यमिति परिणामः पात्रस्यात्मशुद्धिरिति ॥ ५३८ ॥
किमर्थं चर्याशुद्धिः प्रपंचेनाख्यायत इत्याशंकायामाह -
.. जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते । अण्णेय पुणो जोगा विण्णाणविहीणएहि कया ॥ ६३६ ॥
सर्वेषु मूलगुणेषूत्तरगुणेषु मध्ये मूलयोगः प्रधानव्रतं भिक्षाचर्या कृतकारितानुमतिरहितं प्रासुकं काले प्राप्तं भोजनं वर्णिता व्याख्याता सूत्रे प्रवचने, तस्मात्तां भिक्षाशुद्धि परित्यज्यान्यान् योगानुपवासत्रिकालयोगादिकान् ये कुवन्ति तैस्तेऽन्ये योगा विज्ञानविरहितैस्तैश्चारित्रविहीनैः पुनः कृतां न परमार्थं जानद्भिरिति चर्याशुद्ध्या स्तोकमपि क्रियते यत्तपस्तच्छोभनमिति ॥ ९३६ ॥
तथा
कल्लं कल्लं पि वरं आहारो परिमिदो पसत्थो य । ण य खमण पारणाश्रो बहवो बहुसो बहुविषो य ॥ ९४०॥
महान् फल मिलता है। जो कुछ भी, आहार आदि प्रशस्त और निर्दोष हैं, वात, पित्त, कफ आदि दोषों को शान्त करनेवाले हैं, सर्व रसों से युक्त हैं ऐसे आहार आदि गुरुओं को पड़गाहन आदि करके नवधा भक्तिपूर्वक, श्रद्धा आदि सात गुणों से युक्त होकर मेरे द्वारा दिये जाने चाहिए, यह दाता की शुद्धि है । तथा सभी आहारादि विधि त्याज्य ही है, मुझे इस शोभन आहार के ग्रहण करने से क्या प्रयोजन है ? यत् किंचित्मात्र भी प्रासुक आहार ग्रहण करके उदर भरना चाहिए ऐसा परिणाम होना, पात्र की आत्मशुद्धि है ।
आपने चर्याशुद्धि का विस्तार से व्याख्यान क्यों किया है, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ – अ -आगम में योगों में मूलयोग भिक्षा चर्या ही कही गयी है किन्तु इससे अन्य योगों को विज्ञान से हीन मुनियों ने ही किया है ॥९३६॥
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श्राचारवृत्ति - सम्पूर्ण मूल गुणों में और उत्तर गुणों में मूलयोग - प्रधानव्रत भिक्षाशुद्धि है जिसका वर्णन कृत- कारित अनुमोदना रहित प्रासुक भोजन की समय पर उपलब्धि के रूप में जिन प्रवचन में किया गया है । अतः भिक्षाशुद्धि को छोड़कर उपवास, त्रिकाल योग अनुष्ठान आदि अन्य योगों को वे ही करते हैं जो विज्ञान अर्थात चारित्र से रहित हैं और परमार्थ को नहीं जानते हैं। तात्पर्य यही है कि आहार की शुद्धिपूर्वक जो थोड़ा भी तप किया जाता है वह शोभन है ।
उसी बात को और भी कहते हैं
गाथार्थ- परिमित और प्रशस्त आहार प्रतिदिन भी लेना श्रेष्ठ है किन्तु चर्या-शुद्धि रहित अनेक उपवास करके अनेक प्रकार की पारणाएँ श्रेष्ठ नहीं हैं ॥ ९४० ॥
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