________________
१३० ]
[ मूलाचारे परलोक इति ॥३२॥
तथा
यः साधुर्यत्र देशे शुद्धेऽशुद्ध वा यथालब्धं शुद्धमशुद्ध वा गृह्णाति आहारमुपधिकादिकं च यः श्रमणगुणमुक्तयोगी स तु संसारप्रवर्धको भवतीति ।।६३३॥
तथा
पचनं पाचनमनुमननं च सेवमानो न संयतो भवति, तस्माद्भुजानोऽपि च पुनर्न श्रमणो नापि संयमस्तत्रेति ॥६३४॥ बहुश्रुतमपि चारित्रहीनस्य निरर्थकमिति प्रतिपादयन्नाह
बहुगं पि सुदमधीदं कि काहदि अजाणमाणस्स।
दीवविसेसो अंधे णाणविसेसो वि तह तस्स ॥६३५॥ बहपि श्रुतमधीतं कि करिष्यत्यजानतश्चारित्रमनाचरत उपयोगरहितस्य । यथा प्रदीपविशेषोंऽधे लोचनरहिले न किंचित्करोति तथा ज्ञानविशेषोऽपि चारित्ररहितस्य न किंचित्करोतीति ॥३५॥ परिणामवशेन 'शुद्धिमाह
आधाकम्मपरिणदो फासुगदव्वे दि बंधगो भणिदो।
सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मे वि सो सुद्धो ॥६३६॥ अशभ आहार को लेता है अर्थात् जिसके लिए प्रायश्चित्त आदि किया है उसी दोष को पुनः करता है तो उसके इहलोक और परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।
जो साध किसी भी शद्ध अथवा अशद्ध देश में जैसा भी शद्ध या अशद्ध आहार मिला या जैसे भी निर्दोष अथवा सदोष उपकरण आदि मिलें उन्हें ग्रहण कर लेता है वह श्रमण के गणों से रहित होने से संसार को बढ़ानेवाला ही होता है।
जो भोजन बनाने, बनवाने और अनुमोदना करनेरूप कृत-कारित-अनुमति से युक्त है वह संयत नहीं है। वैसा आहारं करने से वह श्रमण नहीं कहला सकता है, क्योंकि उसमें संयम नहीं है।
चारित्र से हीन मुनि का बहुत श्रुतज्ञान भी निरर्थक है, ऐसा कहते हैं
गाथार्थ-आचरण हीन का बहुत भी पढ़ा हुआ श्रुत क्या करेगा? जैसे अन्धे के लिए दीपक विशेष है वैसे ही उसके लिए ज्ञान विशेष है अर्थात् व्यर्थ ही है ।। ६३५ ॥
आचारवृत्ति-चारित्र का आचरण नहीं करनेवाले उपयोग से रहित मुनि का पढ़ा गया बहुत-सा श्रुत भी क्या करेगा ? जैसे नेत्रहीन मनुष्य के लिए दीपक कुछ भी नहीं करता है वैसे ही चारित्र से हीन मुनि के लिए ज्ञान विशेष भी कुछ नहीं कर सकता है।
परिणाम के निमित्त से शुद्धि होती है ऐसा कहते हैं
गाथार्थ-अधःकर्म से परिणत हुआ साधु प्रासुकद्रव्य के ग्रहण करने पर भी बन्धक कहा गया है और शुद्ध को खोजनेवाला मुनि अधःकर्म से युक्त आहार के लेने पर भी शुद्ध है ।।६३६।।
१. क० शुद्धिमशुद्धि चाह क ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org