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________________ १२२ ] च कृत्वा पुनः स्वपन् प्रतिलेखनमंतरेण निश्चयेन जीवविघातादिकं च कुर्यादिति ॥११४॥ ननु प्रतिलेखनेनाऽपि जीवानां पीडा भवतीति ततः किमुच्यते प्रतिलेखनधारणामित्याशंक्य प्रतिलेखनस्य कस्यापि सौकुमार्यमाह - होदि यणपीडा श्रच्छिपि भमाडिदे दु पडिलेहे । तो सुहुमादी लहुओ पडिलेहो होदि कायव्वो ॥१५॥ न च भवति नयनपीडा चक्षुषो व्यथा अक्ष्णि नयनेऽपि भ्रामिते प्रवेशिते प्रतिलेखे मयूरपिच्छे, यतस्ततः सूक्ष्मत्वादियुक्तो लघुप्रमाणस्थः प्रतिलेखो भवति कर्त्तव्यो जीवदयानिमित्तमिति ।।१५।। प्रतिलेखनास्थानान्याह - ठाणे चकमणादाणे णिक्खेवे सयणग्रासण पयत्ते । पडिलेहणेण पडिले हिज्जह लिंगं च होइ सपक्वे ॥ ११६ ॥ [ मूलाधारे स्थाने कायोत्सर्गे चंक्रमणे गमने आदाने कुंडिकादिग्रहणे निक्षेपे पुस्तकादीनां निक्षेपणे शयने आसने 'उद्वर्तन परावर्त्तनादी संस्तरग्रहणे भुक्तोच्छिष्टप्रमार्जने च यत्नेन प्रतिलेखनेन प्रतिलिख्यते प्रमाज्यंते जीवानां रक्षा क्रियते यतो लिंगं च चिह्न च स्वपक्षे भवति यतोऽयं वाताधिको न भवति संयतोऽयमिति लिगं भवति सोकर पुनः उठकर मल-मूत्रादि करके पुनः सोते हुए, पिच्छिका के बिना निश्चय से जीव का घात आदि होता है अतः साधु को पिच्छिका अवश्य ग्रहण करना चाहिए । यदि प्रतिलेखन से भी जीवों को पीड़ा होती है तो प्रतिलेखन धारण करना क्यों कहा? ऐसी आशंका होने पर कौन-सा प्रतिलेखन सुकुमार होता है, सो ही बताते हैं गाथार्थ - प्रतिलेखन को नेत्र में फिराने पर भी नेत्रों में पीडा नहीं होती है । इसलिए सूक्ष्म आदि और हल्की पिच्छिका ग्रहण करना चाहिए ।। १५ ।। Jain Education International आचारवृत्ति - मयूरपिच्छ के प्रतिलेखन को आँखों में डालकर फिराने पर भी व्यथा नहीं होती है । इसलिए सूक्ष्मत्व आदि से युक्त लघु प्रमाण वाली ही पिच्छिका जीव दया के लिए लेनी चाहिए | प्रतिलेखन के स्थान को कहते हैं गाथार्थ - ठहरने में, चलने में, ग्रहण करने में, रखने में, सोने में, बैठने में साधु प्रतिलेखन से प्रयत्नपूर्वक परिमार्जन करते हैं क्योंकि यह उनके अपने ( मुनि) पक्ष का चिह्न है ॥ ११६ ॥ श्राचारवृत्ति - कायोत्सर्ग में, गमन करने में, कमंडलु आदि के ग्रहण करने में, पुस्तक आदि के रखने में, सोते समय संस्तर-चटाई, पाटा आदि के ग्रहण करने में, हाथ-पैर सिकोड़ने, या फैलाने में, करवट बदलने में बैठने में, तथा आहार के अनन्तर उच्छिष्ट के परिमार्जन में, इत्यादि प्रसंगों में साधु पिच्छिका से सावधानी पूर्वक परिमार्जन करते हैं अर्थात् जीवों की रक्षा करते हैं क्योंकि यह अपने ( दिगम्बर) आम्नाय का चिह्न है । इस मनुष्य को वातरोग नहीं है अर्थात् यह पागल नहीं है प्रत्युत संयत मुनि है, ऐसी पहचान इस पिच्छिका से होती है। इसलिए १. क० उद्वर्तनपरावर्तने । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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