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समयसाराधिकारः ]
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यत्रेते पंचगुणा द्रव्ये सन्ति तत्प्रतिलेखनं मयूरपिच्छग्रहणं प्रशंसन्त्यभ्युपगच्छन्त्याचार्या गणधर देवादय
इति ॥१२॥
ननु चक्षुषैव प्रमार्जनं क्रियते किमर्थं प्रतिलेखनधारणं, नंष दोषो न हि चक्षुः सर्वत्र प्रवर्त्तते यतः - सुहुमा हु संति पाणा दुप्पेक्खा 'प्रक्खिणो श्रगेज्भा हु । तह्मा जीवदयाए पडिलिहणं धारए भिक्खू ॥ ६१३ ॥
सूक्ष्माः सुष्ठु क्षुद्राः, हु—स्फुटं सन्ति विद्यन्ते, प्राणा द्वीन्द्रियादय' एकेन्द्रियाश्च दुःप्रेक्ष्या दुःखेन दृश्या मांसचक्षुषा चाग्राह्या मांसमयेक्षणेन ग्रहीतुं न शक्या यत एवं तस्मात्तेषां जीवानां दयानिमित्तं प्राणसंयमप्रतिपालनार्थं प्रतिलेखनं धारयेन्मयूरपिच्छिकां' गृह्णीयाद्भिक्षुः साधुरिति ॥ ६१३ ।।
प्रतिलेखनमन्तरेण न साधुः
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उच्चारं परसवणं णिसि सुत्तो उट्ठिदो हु काऊण |
डिलिहिय सुतो जीववहं कुणदि णियदं तु ॥ ६१४ ।।
उच्चारं पुरीषोत्सर्गं प्रस्रवणं मूत्रश्लेष्मादिकं च कृत्वा निशि रात्री प्रसुप्तो निद्राक्रान्त उत्थितश्चेतयमानोऽपि चक्षुषोऽप्रसरेऽप्रतिलेख्य प्रतिलेखनमंतरेण पुनः स्वपन् गच्छन्नुद्वर्तनपरावर्तनानि च कुर्वन् जीववधं जीवानां वधं जीवघातनं परितापनादिकं च नियतं निश्चितं निश्चयेन करोति । निशि सुप्तः पुनरुत्थित उच्चारं प्रस्रवणं
हल्की है अतः इसमें लघुत्व है जो पाँचवाँ गुण है । जिस प्रतिलेखन में ये पाँच गुण पाये जाते हैं उस मयूरपंखों के प्रतिलेखन - पिच्छिका के ग्रहण करने को ही गणधरदेव आदि आचार्यगण प्रशंसा करते हैं और ऐसा प्रतिलेखन ही वे स्वीकार करते हैं ।
चक्षु से भी तो प्रमार्जित किया जा सकता है तब पिच्छिका धारण करना किसलिए अनिवार्य है ? ऐसा नहीं कहना क्योंकि चक्षु सर्वत्र प्रवृत्ति नहीं करती है, सो ही बताते हैं
गाथार्थ - बहुत से प्राणी सूक्ष्म होने से दिखते नहीं हैं क्योंकि वे चक्षु से भी ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं । इसलिए जीवदया के लिए प्रतिलेखन धारण करे ।। ६१३ ।।
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आचारवृत्ति - बहुत से द्वीन्द्रिय आदि जीव तथा एकेद्रिन्य जीव अत्यन्त सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देते हैं, चर्म चक्षु से ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं। उन जीवों की दया हेतु व प्राणी संयम के पालन हेतु मुनिराज मयूरपंखों की पिच्छिका ग्रहण करें ।
पिच्छिका के बिना वे साधु नहीं होते हैं
गाथार्थ - जो रात में सोते से और उठकर मल-मूत्र विसर्जन करके प्रतिलेखन किये बिना सो जाता है वह साधु निश्चित ही जीववध करता है ।। ९१४ ।।
आचारवृत्ति - जो साधु रात्रि में सोते से जाग कर अँधेरे में पिच्छिका के अभाव में परिमार्जन किये बिना मल-मूत्र कफ आदि विसर्जन करके या करवट आदि बदलकर पुनः सो जाता है वह निश्चित ही जोवों को परितापन आदि पीड़ा पहुँचा देता है । अर्थात् रात्रि में
१. क० मंस चक्खुणोऽगेज्झा |
२. क० द्वीन्द्रिया ।
३. क० मयूरपिच्छं ।
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