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। मूलाचारे
स्थानं कृत्वा वर्षाकाले योगो ग्राह्यस्तथा योगं समाप्य' मासमात्रमवस्थानं कर्त्तव्म । लोकस्थितिज्ञापनार्थमहिंसादिव्रतपरिपालनार्थं च योगात्प्राङमासमात्रावस्थानस्य पश्चाच्च मासमात्रावस्थानं श्रावकलोकादिसंक्लेशपरिहरणायाथवा ऋतौ ऋतो मासमासमात्र स्थातव्यं मासमात्रंच विहरणं कर्त्तव्यमिति मास: श्रमणकल्पोऽथवा वर्षाकाले योगग्रहणं चतुर्षु चतुर्षु मासेषु नन्दीश्वरकरणं च मासश्रमणकल्पः । पज्जो-पर्यापर्युपासनं निषद्यकायाः पंचकल्याणस्थानानां च सेवनं पर्येत्युच्यते, श्रमणस्य श्रामण्यस्य वा कल्पो विकल्पः अनेन प्रकारेण दशप्रकारः श्रमणकल्पो वेदितव्य इति ॥११॥
लोचो मूलगुणे व्याख्यातस्तथा व्युत्सृष्टशरीरत्वं चास्नानमूलगुणे व्याख्यातमतो न तयोरिह प्रपंच. स्ततः प्रतिलेखनस्वरूपमाह
रजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च।
जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसति ॥६१२॥ रज:स्वेदयोर्यत्राग्रहणं रजसा पांस्वादिना प्रस्वेदेन च यन्मलिनं न भवति । रजसोऽग्रहणमेक: गुणः, स्वेदस्य चाग्रहणं द्वितीयो गुणः, मार्दवं मृदुत्वं चक्षुषि प्रक्षिप्तमपि न व्यथयति यतः स तृतीयो गुणः, सुकुमारता सौकुमार्य दर्शनीयरूपं चतुर्थो गुणः, लघुत्वं च गुरुत्वस्याभावः प्रमाणस्थानमुत्क्षेपणादो योग्यता पंचमो गुणः,
करना तथा वर्षायोग को समाप्त करके पुनः एक मास तक अवस्थान करना चाहिए। लोकस्थिति को बतलाने के लिए और अहिंसा आदि व्रतों का पालन करने के लिए वर्षायोग के पहले एक मास रहने का और अनन्तर भी एक मास तक रहने का विधान है सो यह श्रावक आदिकों के संक्लेश का परिहार करने के लिए है। अथवा ऋतु-ऋतु में (दो माह की एक ऋतु) अर्थात् प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक रहना चाहिए और एक-एक मास तक विहार करना चाहिए। ऐसा यह 'मास' नाम का श्रमण कल्प है। अथवा वर्षाकाल में वर्षां योग ग्रहण करना और चारचार महिनों में नन्दीश्वर करना सो यह मास श्रमणकल्प है।
पर्या–पर्युपासन को पर्या कहते हैं । निषधका स्थान और पंचकल्याणक स्थानों की उपासना करना पर्या है।
ये श्रमण के दश भेद हैं अथवा मुनि के योग्य दश विकल्प हैं, ऐसा समझना।
लोच का तो मूलगुणों में वर्णन कर दिया है तथा शरीरसंस्कारहीनता का अस्नान मूलगुण में व्याख्यान हो गया है अतः इन दोनों का यहाँ पर वर्णन नहीं करेंगे। अब यहाँ पर प्रतिलेखन का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-धूलि और पसीना को ग्रहण नहीं करना, मृदु होना, सुकुमार होना और लघु होना, जिसमें ये पाँच गुण हैं उस प्रतिलेखन की गणधरदेव प्रशंसा करते हैं ।। ६१२ ॥
आचारवृत्ति --मयूरपंखों की पिच्छिका का नाम प्रतिलेखन है। धूलि को ग्रहण नहीं करना एक गुण है, पसीना को ग्रहण नहीं करना दूसरा गुण है, चक्षु में फिराने पर भी पीड़ा नहीं करना अर्थात् मृदुता तीसरा गुण है, सुकुमारता चौथा गुण है अर्थात, यह देखने योग्य, सुन्दर ओर कोमल है, तथा उठाने में या किसी वस्तु को परिमार्जित करने आदि में
१. क. समापयित्वा।
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