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________________ समयसाराधिकारः ] अच्चेलक्कुद्दे सिय सेज्जाहररायपिंड किदियम्मं । वद जेटू पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो ॥११॥ अचेलकत्वं वस्त्राद्यभावः, अत्र यो नत्र स उत्तरत्राभिसंबन्धनीयः, यथा चेलकस्याभावस्तथोद्द ेशिकस्याभावस्तथा शय्या गृहस्याभावस्तथा राजपिंडस्याभाव: । उद्दिश्य न भुंक्त, उद्देशे भवस्य दोषस्य परिहारोऽनोद्देशिको मदीयायां वसतिकायां यस्तिष्ठति तस्य दानादिकं ददामि नान्यस्येत्येवमभिप्रेतस्य दानस्य परिहारः, शय्यागृहपरिहारो 'मठगृहमपि शय्यागृहमित्युच्यते तस्यापि परिहारः, राजविडस्य परित्यागो वृष्यानस्येन्द्रिय प्रवर्धनकारिण आहारस्य परित्यागोऽथवा स्वार्थं दानशालाया ग्रहणं यत्तस्य परित्यागः, कृतिकर्म स्वेन वंदनादिकरणे उद्योग:, व्रतान्यहिंसादीनि तैरात्मभावनं तैः सह संयोगः संवासस्तद्व्रतं, ज्येष्ठो ज्येष्ठत्वं मिध्यादृष्टिसासादन सम्यङ्मिथ्यादृष्ट्या संयत सम्यग्दृष्टिसंयतासंयतानां ज्येष्ठः सर्वेषां पूज्यो बहुकाल प्रव्रजि - ताया अप्यायिकाया अद्य प्रव्रजितोऽपि महाँस्तथेन्द्र चक्रधरादीनामपि महान् यतोऽतो ज्येष्ठ इति, प्रतिसप्तत्रतिक्रमणैरात्मभावनं देवसिकादिप्रतिक्रमणानुष्ठाने मासो योगग्रहणात्प्राङ्मासमात्रमव क्रमणं गाथार्थ – अचेलकत्व, औद्देशिका त्याग, शय्यागृह त्याग, राजपिण्ड त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास, और पर्या ये दश श्रमण कल्प हैं । ॥ ११ ॥ [ ११६ आचारवृत्ति - अचेलकत्व अर्थात् वस्त्रादि का अभाव । यहाँ अचेलकत्व में जो 'नञ्' समास है उसका आगे के शब्दों से भी सम्बन्ध कर लेना चाहिए। जैसे, चेलक का अभाव - अचेल - कत्व | ऐसे ही औद्देशिक का अभाव, शय्यागृह का अभाव और राजपिण्ड का अभाव । औद्देशिकत्याग - उद्देश्य करके भोजन न करे, अर्थात् उद्देश से होने वाले दोष का परिहार करना अनौद्देशिक है । शय्यागृहत्याग — मेरी वसतिका में जो ठहरे हैं उन्हें मैं आहार दान आदि दूंगा अन्य को नहीं इस प्रकार के अभिप्राय से दिये हुए दान को न लेना शय्यागृहत्याग है । मठगृह को भी शय्यागृह कहते हैं, उसका परिहार करना । राजपिण्डत्याग - राजा के यहाँ आहार का त्याग करना अर्थात् गरिष्ठ, इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाले आहार का त्याग करना अथवा स्वार्थदानशाला के आहार ग्रहण का त्याग करना । कृतिकर्म - वन्दना आदि क्रियाओं के करने में उद्यम करना । व्रत -अहिंसा आदि व्रत कहलाते हैं । उन व्रतों से आत्मा की भावना करना अर्थात् उन व्रतों के साथ संवास करना । ज्येष्ठ — बड़प्पन । मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत . सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इनमें ज्येष्ठ होना- सभी का पूज्य होना । जिस हेतु से बहुत काल से दीक्षित भी आर्यिका से आज का दीक्षित भी मुनि महान् है, उसी प्रकार इन्द्र, चक्रवर्ती आदि से भी महान् है, उसी हेतु से वह ज्येष्ठ कहलाते हैं । प्रतिक्रमण - सात प्रकार के प्रतिक्रमणों द्वारा आत्म भावना करना अर्थात् दैवसिक आदि प्रतिक्रमण के अनुष्ठान में तत्पर रहना । मास - वर्षायोग ग्रहण से पहले एकमास पर्यन्त रहकर वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण २. क० नुष्ठानं । १. एषा पंक्ति : 'क' प्रतो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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