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________________ ११८ ] [ मूलाचारे सुचरित्रं भवति शुद्धिश्च तेषामुद्गमोत्पादनैषणादोषाणामभाव इति । अथवा पिडादीनामुद्गमादिदोषेभ्यो शोधनं यच्चारित्ररक्षणार्थ तत्सुचरित्रं भवतीति ॥६०६॥ येन लिंगेन तच्चारित्रमनुष्ठीयते तस्य लिंगस्य भेदं स्वरूपं च निरूपयन्नाह अच्चेलक्क लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णायव्वो ॥६१०॥ अचेलकत्वं चेलशब्देन सर्वोऽपि वस्त्रादिपरिग्रह उच्यते, यथा तालशब्देन सर्वोऽपि वनस्पतिः, तालफलं न भक्ष्यं इत्युक्त सर्वं वनस्पतिफलं न भक्षयिष्यामीति ज्ञायते, एव चेलपरिहारेण सर्वस्य परिग्रहस्य परिहारः, न चेलकत्वमचेलकत्वं सर्वपरिग्रहपरिहरणोपायः, एतदप्यचेलकत्वमुपलक्षणपरं तेनाचेलकत्वौद्देशिकादयः सर्वेऽपि गह्यन्त इति । लोच: स्वहस्तपरहस्तमस्तककर्चगतके शापनयनं । व्युत्सष्ट शरीरता च स्नानाभ्यंजनांजन परिमर्दनादि-संस्काराभावः। प्रतिलेखनं मयूरपिच्छग्रहणम् । अचेलकत्वं नःसंग्यचिह्न, सद्भावनायाश्चिह्न लोचः, व्युत्सृष्टदेहत्वमपरागतायाश्चिह्न, दयाप्रतिपालनस्य लिंगं 'मयूरपिच्छिकाग्रहणमिति, एष एवं लिंगकल्पो लिंगविकल्पश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्यश्चारित्रोपकारकत्वादिति ॥६१०॥ अथ के तेऽचेलकत्वादय इत्याशंकायामाहऔर अशन दोषों का न होना है शुद्धि है । तात्पर्य यही है कि चारित्र की रक्षा हेतु आहार आदि का उद्गम आदि दोषों से जो शोधन करना है वही सुचारित्र होता है। जिस लिंग से वह चारिः अनुष्ठित किया जाता है, उस लिंग का भेद और स्वरूप बतलाते हैं गाथार्थ-नग्नत्व, लोच, शरीरसंस्कारहीनता और पिच्छिका यह चार प्रकार का लिंगभेद जानना चाहिए ॥६१०॥ आचारवृत्ति-अचेलकत्व में 'चेल' शब्द से सभी वस्त्रादि परिग्रह कहे जाते हैं । जैसे तालशब्द से सभी वनस्पतियाँ कही जाती हैं। ताल का फल नहीं खाना चाहिए, ऐसा कहने पर 'सभी वनस्पतियों के फल नहीं खाऊँगा' ऐसा जाना जाता है । इसी तरह 'चेल' के त्याग से सभी परिग्रह का त्याग होता है 'न चेलकपना-अचेलकपना' अर्थात् सर्व परिग्रह के त्याग का उपाय। यहाँ पर यह 'अचेलकत्व' उपलक्षण मात्र है । अतः उससे अचेलकत्व, औद्देशिक आदि सभी गुणों का ग्रहण हो जाता है। लोच अर्थात् स्वहस्त अथवा परहस्तों से शिर और मछ दाढ़ी के केश उखाड़ना। शरीरसंस्कारहीनता-स्नान, उबटन, अंजन, तैलपरिमर्दन आदि से संस्कार का नहीं करना । प्रतिलेखन-मयरपिच्छिका ग्रहण करना । तात्पर्य यह है कि अचेलकत्व का चिन्ह निःसंगता है, केश लोच सद्भावना का चिह्न है, शरीरसंस्कारहीनता वीतरागता का चिह्न है, मयूरपिच्छिका का ग्रहण दयाप्रतिपालन का चिह्न है। इस प्रकार से यह चार तरह का लिंग जानना चाहिए जो कि चारित्र का उपकारक है। वे अचेलकत्व आदि कौन-कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं १. क० मयूरपिच्छग्रहणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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