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समयसाराधिकारा]
[ १२३ ततः प्रतिलेखनधारणं साधूक्त युक्त्यागमाविरोधि' चेति। न च प्रणिघातयोगात्तेषामुत्पत्तिः कार्तिकमासे स्वत एव पतनाद्, यथाहारस्य शुद्धिः क्रियते एवमुपकरणादिकस्यापि कार्येति ॥१६॥ अनेन लिंगेन युक्तस्याचरणफलमाह
पोसह उवहोपक्खे तह साहू जो करेदि णावाए।
णावाए कल्लाणं चादुम्मासेण णियमेण ॥६१७॥' अनेन लिंगेन युक्तः सन् साधुर्यः करोति प्रोषधमुपवासमुभयपक्षयोः कृष्णचतुर्दश्यां शुक्लचतुर्दश्यां च, णावाए-नापाये तयोरविनाशे सति, णावाए-नयते प्राप्नोति, कल्याणं परमसुखं, चातुर्मासेन चातुर्मासिकप्रतिक्रमणेन, नियमेन सांवत्सरिकप्रतिक्रमणेन च सह, नियमेन निश्चयेन वा। चातुर्मासिकोपवासेन सांवत्सरिकोपवासेन च सह यः साधुः कृष्णचतुर्दश्यां शुक्लचतुर्दश्यां चोपवासं करोति निन्तरममुंचन् स प्राप्नोति कल्याणं निश्चयेन । अथवा कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे चोपवासं यः करोति साधुरपायमंतरेण स साधुश्चातुर्मासिकेन नियमेन कल्याणं प्रायश्चित्तं तथापि प्राप्नोत्यथवा न प्राप्नोतीति संबन्ध इति ॥१७॥
पिच्छिका ग्रहण करना ठीक ही कहा गया है। यह युक्ति और आगम से अविरुद्ध चिह्न है।
इसकी उत्पत्ति प्राणियों के घात के योग से नहीं होती है, कार्तिक मास में स्वतः ही ये पंख गिर जाते हैं। अर्थात कार्तिक मास में मोर के पंख स्वयं झड जाते हैं, वे जीवघात करके नहीं लाये जाते अतः ये पंख सर्वथा निर्दोष हैं और अत्यन्त कोमल हैं। जिस प्रकार से आहार की शुद्धि को जाती है अर्थात् उद्गम, उत्पादन आदि दोषों से रहित आहार लिया जाता है उसी प्रकार से उपकरण आदि की भी शुद्धि करनी चाहिए।
इस चिह्न से युक्त मुनि के आचरण का फल कहते हैं
गाथार्थ जो साधु बिना अपाय-दोष के जैसे होवेवैसे दोनों पक्ष में प्रोधष करता है वह चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के साथ कल्याण को प्राप्त कर लेता है ॥६१७ ॥
आचारवृत्ति-जो साधु इस पिच्छिका आदि लिंग से सहित होते हुए कृष्ण चतुर्दशी और शुक्ल चतुर्दशी में बिना व्यवधान के उपवास करते हैं और चातुर्मासिक तथा वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं अथवा निश्चय से चातुर्मास करते हैं वे परमसुख को प्राप्त कर लेते हैं। अर्थात् जो साधु चातुर्मासिक उपवास और सांवत्सरिक उपवास के साथ कृष्ण चतुर्दशी तथा शुक्ल चतुर्दशी को हमेशा उपवास करते हैं वे कल्याणरूप परमसुख के भागी होते हैं । अथवा जो साधु बिनाबाधा के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में उपवास करते हैं फिर भी वे चातुर्मासिक नियम से 'कल्याण' नामक प्रायश्चित कोप्राप्त होते हैं अथवा नहीं भी प्राप्त होते हैं, ऐसा सम्बन्ध करना। १. क० युक्त्यागमाविरोधाच्च । २. फलटन से प्रकाशित मूलाचार में इसके पहले निम्नलिखित एक गाथा और मिलती हैठाणणिसिज्जागमणे जीवाणं हंति अप्पणो देहं । वसकत्तरिठाणगवं णिपिच्छे परिण निव्वाणं ॥" अर्थात् जो मुनि अपने पास पिच्छिका नहीं रखता वह कायोत्सर्ग के समय, बैठने के समय, आने-जाने के समय अपनी देह की क्रिया से जीवों का घात करता है अत: उसे मुक्ति नहीं मिलती। (यहाँ 'दश कर्तरि' शब्द का अर्थ विचारणीय है। वैसे शास्त्र में मुनि के लिए बिना पिच्छिका के दश पग से अधिक गमन करने पर प्रायश्चित्त का विधान है।)
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