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________________ [ ११५ समयसाराधिकारः ] त्राणामभावेऽपि ध्यानं संभावयेद्धीरः सम्यग्ध्यानं प्रयोजयेद्यतः सर्वाण्येतानि ध्यानेऽन्तर्भूतानि । सर्वैर्यद्यपि सुगतिभवति तथापि ध्यानं प्रधानं यतः सम्यग्दर्शना विनाभावि ॥ १०४ ॥ सम्यग्दर्शनस्य माहात्म्यमाह- सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी । उवलद्धपयत्यो पुण सेयासेयं वियाणादि ॥ ६०५ ॥ सम्यक्त्वा ज्जिनवचनरुचेर्ज्ञानं स्यात्सम्यक्त्वेन ज्ञानस्य शुद्धिर्यतः क्रियतेऽतः सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वाद् भवति, सम्यग्ज्ञानाच्च सर्वभावोपलब्धिर्भवति यतः सर्वेषां द्रव्याणां पदार्थानामस्तिकायानां सभेदानां सपर्यायाणां च सम्यग्ज्ञानेन परिच्छित्तिः क्रियते । दर्शनस्य विषयो विविक्तो' न भवति ज्ञानात् कथं तहि तत्पूर्वकं ज्ञानं, नैष दोषो विपरीतानध्यवसायाकिंचित्करत्वादीनि स्वरूपाणि ज्ञानस्य सम्यक्त्वेनापनीयन्त | उपलब्धपदार्थश्व पुनः श्रेयः पुण्यं कर्मापायकारणं चाश्रेयः पापं कर्मबन्धकारणं च विजानाति सम्यगवबुध्यत इति ॥ ६०५ ॥ तथा गाथा में यद्यपि विशेष शब्द चारित्र के साथ लगा हुआ है फिर भी सभी के साथ सम्बन्धित कर लिया गया है । इस कथन से अर्थविशेष देखा जाता है । अथवा चारित्र के साथ सम्बन्धित नहीं है, क्योंकि उसमें समास नहीं हुआ है इसीलिए सभी के साथ सम्बन्ध किया गया है । मध्य में जो विभक्ति नहीं दिख रही है अर्थात् 'चरिय विसेसेण' ऐसा पाठ है सो वह प्राकृत व्याकरण के अनुसार है, ऐसा समझना । सम्यग्दर्शन का माहात्म्य बतलाते हैं गाथार्थ -- सम्यक्त्व से ज्ञान होता है, ज्ञान से सभी पदार्थों का बोध होता है और सभी पदार्थों को जानकर पुरुष हित-अहित जान लेते हैं । ।। ६०५ || आचारवृत्ति - जिनवचनों की श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है। उससे ज्ञान होता है अर्थात् उस सम्यक्त्व से ज्ञान की शुद्धि होती है । अतः सम्यक्त्व से ही सम्यग्ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञान से भेद-प्रभेद सहित, पर्यायों सहित सर्वद्रव्यों का, पदार्थों का और अस्तिकायों का बोध होता है। शंका-सम्यग्दर्शन का विषय ज्ञान से भिन्न नहीं है तो फिर तत्पूर्वक ज्ञान कैसे हुआ ? समाधान - ऐसा दोष आप नहीं दे सकते हैं, क्योंकि ज्ञान के विपरीत अनध्यवसाय और अकिंचित्कर आदि स्वरूप सम्यक्त्व से ही दूर किये जाते हैं । पुनः पदार्थों के ज्ञानी मनुष्य श्रेय - पुण्य अर्थात् कर्मों को दूर करने के कारण और अश्रेय - पाप अर्थात् कर्मबन्ध के कारण अच्छी तरह जान लेते हैं । उसी को और कहते हैं Jain Education International १. क० विविक्तो भवति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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