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________________ [ मूलाचारे सेयासेयविदण्हू उद्धददुस्सील सीलवं होदि । सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहदि णिव्वाणं ॥६०६॥ ततः श्रेयसोऽश्रेयसश्च विद् वेत्ता श्रेयोऽश्रेयोवित्सन् उद्धृतदुःशीलः सन् शीलवानष्टादशशीलसहस्रा धारः स्यात्ततः शीलफलेनाभ्युदयः संपूर्णचारित्रं अथवोद्भूतदुःशीलो निवृत्तपापक्रियः स्यात्ततश्चारित्रसमन्वितः स्यात्तच्च शीलं तस्माच्चाभ्युदयः स्वर्गादिसुखाद्यनुभवनं ततश्च लभते पुननिर्वाणं सर्वकर्मापायोत्पन्नसुखानुभवनमिति ततः सर्वेण' पूर्वग्रन्थेन चारित्रस्य माहात्म्यं दत्तम् ॥६०६॥ यताच सम्यक्चारित्रात्सुगतिस्ततः - सव्वं पि हु सुदणाणं सुठ्ठ सुगुणिवं पि सुट्ठ पढिदं पि । समणं भट्टचरित्तं ण हु सक्को सुग्गई णेदुं ॥६०७॥ चारित्रस्य प्राधान्यं यतः सर्वमपि श्रुतज्ञानं सुष्ठु कालादिशुद्ध्या शोभनविधानेन परिणामशुद्ध्या गणितं परिवर्तितं सुष्ठु पठितं च शोभनविधानेन श्रुतं व्याख्यातमवधारितं च सत्, श्रमणं यति भ्रष्टचारित्रं चारित्रहीनं नैव खलु स्फुटं शक्त समर्थ सुगति नेतुं प्रापयितुमथवा न शक्नोति परमगति नेतुमित्यतश्चारित्रं प्रधानमिति ॥१७॥ इममेवा) दृष्टान्तेन पोषयन्नाह गाथार्थ-श्रेय और अश्रेय के ज्ञाता दुःशील का नाश करके शीलवान् होते हैं, पुनः उस शील के फल से अभ्युदय तथा निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं ॥६०६॥ आचारवृत्ति-श्रेय और उसके कारणों के तथा अश्रेय और उसके कारणों के वेत्ता मुनि दुःशीन-पाप क्रिया से निवृत्त होकर चारित्र से समन्वित होते हुए अठारह हजार शील के आधार हो जाते हैं । उसके प्रसाद से स्वर्गादि सुखों का अनुभवरूप अभ्युदय प्राप्त कर अन्त में सर्व कर्मों के अपाय से उत्पन्न हुए सुखों के अनुभवरूप निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए सभी पूर्व ग्रन्थों से चारित्र का माहात्म्य कहा गया है। जिस कारण से सम्यक्चारित्र से सुगति होती है वही कहते हैं-- गाथार्थ-अच्छी तरह पढ़ा हुआ भी और अच्छी तरह गुना हुआ भी सारा श्रुतज्ञान निश्चित रूप से भ्रष्टचारित्र श्रमण को सुगति प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है ॥६०७॥ माचारवृत्ति-सभी श्रुतज्ञान, अच्छी तरह-काल आदि की शुद्धिरूप शोभन. विधान से पढ़ा हुआ और परिणाम की शुद्धि से गुना-परिवर्तित किया हुआ तथा अच्छी तरह से सुना-अवधारण किया हुआ हो तो भी वह (श्रुतज्ञान) चारित्रहीन मुनि को स्पष्ट रूप से परमगति को प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है। इसलिए चारित्र की प्रधानता है। यही अर्थ दृष्टान्त से पुष्ट करते हैं १.क. सर्वग्रन्थेन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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