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________________ [ मूलाचारे ततो ज्ञानादियुक्तेन तपसा धीराः सर्वसत्त्वसंपन्ना विधुन्वन्ति विनाशयन्ति पापं चारित्रमोहं कर्माण्ययशुभानि, अध्यात्मयोगेन परमध्यानेन क्षपयन्ति प्रलयं नयन्ति मोहं' मिथ्यात्वादिकं ततः क्षीणमोहा धृतरागद्वेषा विनष्टज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराया निर्मूलिताशेषकर्माणश्च ते संतस्ते साधव उत्तमाः सर्वप्रकृष्टगुणशीलोपेताः सिद्धिं गतिमनन्तचतुष्टयं प्रयान्ति प्राप्नुवन्ति लोकाग्रमिति ॥ ९०३।। ११४ ] पुनरपि ध्यानस्य माहात्म्यमाह - साझाणतवेण य चरियविसेसेण सुग्गई होइ । ता इदराभावे भाणं संभावए धीरो ।। ६०४ || विशेषशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । लेश्याविशेषेण तेजः पद्मशुक्ललेश्याभिः ध्यानविशेषेण धर्मध्यानशुक्लध्यानाभ्यां तपोविशेषेण चारित्रानुकूल कायक्लेशादिभिः, चारित्रविशेषेण च सामायिकशुद्धिपरिहारच्छेदोपस्थापन सूक्ष्म साम्पराय यथागतचारित्रैः सुगतिर्भवति शोभना गतिः शुद्धदेवगतिः सिद्धिगतिर्मनुष्यगतिश्च दर्शनादियोग्या । यद्यपि विशेषशब्दश्चारित्रेण सह संगतस्तथापि सर्वेः सह संबध्यत इत्यर्थविशेषदर्शनादथवा' न चारित्रेण संबन्धः समासकरणाभावात्तस्मात्सर्वैः सह संबन्धः करणीयः, मध्ये च विभक्तिश्रवणं यत्तत्प्राकृतबलेन कृतं न तत्तत्र । अथवा सुगतिर्मोक्षगतिरेवाभिसंबध्यते यत एवं तस्मादितरेषामभावेऽपि लेश्या तपश्चारि श्राचारवृत्ति - वे सर्वशक्ति सम्पन्न मुनि ज्ञान आदि से युक्त तप के द्वारा पापचारित्रमोह और अशुभ कर्मप्रकृतियों का नाश कर देते हैं । अध्यात्म योग रूप परम ध्यान के द्वारा मिथ्यात्व आदि सर्व मोह को समाप्त कर देते हैं । पुनः वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और अशेष कर्मों को नष्ट करके तथा सर्व उत्तम - उत्तम गुणशीलों से युक्त होकर अनन्त चतुष्टय रूप सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाते हैं। पुनरपि ध्यान के माहात्म्य को कहते हैं गाथार्थ - लेश्या, ध्यान और तप के द्वारा एवं चर्या विशेष के द्वारा सुगति की प्राप्ति होती है इसलिए अन्य के अभाव में धीर मुनि ध्यान की भावना करें ।।।६०४|| । आचारवृत्ति- - गाथा का 'विशेष' शब्द प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए। अतः लेश्याविशेष – तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या । ध्यानविशेष - धर्म -शुक्ल ध्यान । तपविशेष – चारित्र के अनुकूल कायक्लेश आदि । चारित्रविशेष - सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय और यथाख्यात । इनके द्वारा सुगति शोभनगति, अर्थात् शुद्ध देवगति, सिद्धिगति और मनुष्यगति जो कि सम्यग्दर्शन आदि के योग्य हैं अथवा सुगति से मोक्षगति समझना चाहिए । इतर के अभाव में भी अर्थात् लेश्या, तप और चारित्र के अभाव में भी धोर अच्छी तरह समीचीन ध्यान का प्रयोग करे क्योंकि ये सब ध्यान में अन्तर्भूत हैं । तात्पर्य यही है कि यद्यपि सभी के द्वारा सुगति होती है फिर भी ध्यान प्रधान है क्योंकि वह सम्यग्दर्शन का अविनाभावी है । १. क० दर्शनमोहं मिथ्यात्वादिकं । २. क० निर्मूलित-शेषकर्माणश्च । ४. क० धर्मध्यान शुक्लध्यान- तपोविशेषेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only ३. क० इत्यर्थो । www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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