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________________ [ मूलाचारे तथा सम्यक्चारित्राचरणायोपदेशमाह भिक्खं चर वस रणे थोवं जेमेहि मा बह' जप। दुःखं सह जिण णिद्दा मेत्ति भावेहि सुट्ठ वेरग्गं ॥८६७॥ भिक्षां चर कृतकारितानुमतिरहितं पिण्डं गृहाण, वसारण्ये स्त्रीपशुपांडकादिवजितेषु' गिरिगुहाकंदरादिष प्रदेशेषु वस,' स्तोकं प्रमाण युक्त स्वाहारचतुर्थभागहीनं भुंक्ष्वाभ्यवहर, मा च बहु प्रलापयुक्त जल्प-असारं वचनं कदाचिदपि मा ब्रूयाः, दुःखं सहस्व केनचित्कारणान्तरेणोत्पन्नामप्रीति पीडारूपां सम्यगनुभव, निद्रां च जय-अकाले स्वापक्रियां वर्जय, मैत्री च भावय सर्वैः सत्त्वैः सह मंत्री भावय, परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषं कुरु, वैराग्यं च सुष्ठु भावय । यतः सर्वस्य प्रवचनस्य सारभूतमेतदिति ।।८६७॥ तथैवंभूतश्च भवेत् अव्यवहारी एक्को झाणे एयग्गमणो भवे णिरारंभो। चत्तकसायपरिग्गह पयत्तचेट्ठो असंगो य ॥८६॥ व्यवहरतीति व्यवहारी न व्यवहार्यव्यवहारी लोकव्यवहाररहितो भवेत्तथैकोऽसहायो भवेज्ज्ञानदर्शनादिकं मूक्त्वा ममान्यन्नास्तीत्येकत्वं भावयेत्तथा ध्याने धर्मध्याने शुक्लध्याने चकाग्रमनास्तन्निष्ठचित्तो उसी प्रकार से सम्यक्चारित्र के आचरण हेतु उपदेश देते हैं गाथार्थ-हे मुने ! तुम भिक्षावृत्ति से भोजन करो, वन में रहो, अल्प भोजन करो, बहुत मत बोलो, दुःख सहन करो, 'निद्रा को जीतो, एवं मैत्री तथा दृढ़ वैराग्य की भावना करो॥८६७॥ आचारवृत्ति-हे साधो ! तुम कृत-कारित-अनुमोदना से रहित निर्दोष पिंड-आहारग्रहण करो। स्त्री, पशु, नपुंसक आदि वजित गिरि, गुफा की कन्दरा आदि में निवास करो। अपने भोजन (खुराक) में चतुर्थ भाग हीन ऐसा प्रमाणयुक्त भोजन करो। बहु-प्रलापयुक्त, जल्प –असारवचन कभी भी मत बोलो। किसी भी कारण से उत्पन्न हुईअप्रीति–पीड़ा को समताभाव से सहन करो। निद्रा पर विजय पाओ। अकाल में नींद मत ले लो। सभी प्राणियों के साथ मैत्री की भावना करो, अर्थात् दूसरों को दुःख की उत्पत्ति न हो ऐसी ही भावना भाओ एवं वैराग्य की भावना भाओ; क्योंकि सभी प्रवचन का सारभूत यही है । तथैव इन गुणों से युक्त भी होना चाहिए गाथार्थ-लोकव्यवहार रहित एकाकी, ध्यान में एकाग्रचित्त, आरम्भ रहित, कषाय और बाह्य परिग्रह से रहित, प्रयत्नपूर्वक क्रिया करनेवाले और संगरहित होओ॥८९८॥ आचारवृत्ति-हे साधो ! तुम लोकव्यवहार से रहित होओ, ज्ञान दर्शन को छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा नहीं है ऐसी एकत्व की भावना भाओ। धर्मध्यान और शुक्लध्यान में एकाग्र ३. तिष्ठ द० ४. मा चासारं कदाचिदपि वचनं १. बहुं व० क० २. वजित गिरि क० भवान् ब्रूयात् इति द० कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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