SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसाराधिकारः] [ १०६ चारित्रं प्रतिपालयति समणा-श्रमणः समतैकतावैराग्याद्याधारस्तव सिद्धि मोक्षं लघु शीघ्र लभते प्राप्नोति, शरीरशुद्धि भिक्षाशुद्धि चाश्रित्य कालशुद्धि राज्यादिगमनपरिहारं चाश्रित्य भावशुद्धि चासंयमादिपरिणामपरिहारं चाश्रित्य शरीरसंहननादिकं चाश्रित्य यश्चारित्रं यत्र वा तत्र वा स्थितो बहुश्रुतोऽल्पश्रुतो वा सम्यग्विधानेन प्रतिपालयति स सिद्धि लभते शीघ्रं यस्मात्तस्मात्समयसारश्चारित्रं द्रव्याद्याश्रितो यत्नेनोच्यत इति द्रव्यबलं क्षेत्रबलं कालबलं भावबलं चाश्रित्य तपः कर्त्तव्यं, यथा वातपित्तश्लेष्मादिकं क्षोभ नोपयाति तथा यत्नः कर्त्तव्यः सारस्य कथनमेतदिति ॥६॥ तथा वैराग्यमपि समयस्य सारो यतः धीरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु । ण य सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाई॥६६॥ धीरो धैर्योपेतः सर्वोपसर्गसहनसमर्थः वैराग्यपरो रागादिभिविनिर्मुक्तः शरीरसंस्कारभोगनिर्वेदपरो विषयविरक्तभावः स्तोकमपि सामायिकादिस्वरूपं हि स्फुटं शिक्षित्वा सम्यगवधार्य सिध्यति कर्मक्षयं करोति, न चैव हि सिध्यति वैराग्यहीनः पठित्वापि सर्वाण्यपि शास्त्राणि, हि यस्मात्तस्माद्वैराग्यपूर्वक करोति चारित्राचरणं प्रधानमिमिति ।।८६६॥ द्वीप, समुद्र, भोगभूमि अथवा कर्मभूमि क्षेत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन शक्ति के स्वभाव को समझकर उसके अनुसार ज्ञान, दर्शन, चारित्र अथवा तपश्चरण में प्रयत्न करते हैं अर्थात् सम्यक्चारित्र का पालन करते हैं, वे वहीं पर शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् जिस किसी स्थान में भी मुनि यदि शरीरशुद्धि और आहारशुद्धि का आश्रय लेकर, रात्रि आदि में गमन नहीं करने रूप कालशुद्धि एवं असंयम आदि के परिहार रूप भावशद्धि का आश्रय लेकर के तथा शरीर-संहनन आदि को भी समझकर चारित्र का अच्छी तरह पालन करते हैं तो वे चाहे बहुज्ञानी हों या अल्पज्ञानी, सिद्धि को शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं। जिस कारण से ऐसी बात है उसी हेतु से यह समयसाररूप चारित्र द्रव्य, क्षेत्र आदि के आश्रय से सावधानीपूर्वक धारण किया जाता है । इसलिए द्रव्यबल, क्षेत्रबल, कालबल और भावबल का आश्रय लेकर तपश्चरण करना चाहिए। तात्पर्य यही है कि जिस तरह से वात, पित्त कफ आदि कुपित नहीं हों, वैसा प्रयत्न करना चाहिए, यही सार ---समयसार का कथन है । अथवा यही सारभूत कथन है। उसी प्रकार से वैराग्य भी समय का सार है, क्योंकि गाथार्थ-धीर, वैराग्य में तत्पर मनि निश्चित रूप से थोड़ी भी शिक्षा पाकर सिद्ध हो जाते हैं किन्त वैराग्य से हीन मुनि सर्व शास्त्रों को पढ़कर भी सिद्ध नहीं हो पाते ॥८६६॥ आचारवृत्ति-धर्य से सहित, सर्व उपसर्गों को सहन करने में समर्थ, रागादि से रहित, शरीर-संस्कार और भोगों से उदासमना एवं विषयों से विरक्त मुनि अल्प भी सामायिक आदि स्वरूप के प्रतिपादक शास्त्र को पढ़कर, उसका अच्छी तरह अवधारण करके कर्मों का क्षय कर देते हैं किन्तु वैराग्य से रहित मुनि सभी शास्त्रों को-ग्यारह अंग पर्यन्त शास्त्रों को पढ़कर भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसीलिए वैराग्यपूर्वक चारित्र काआचरण करना ही प्रधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy