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________________ १०८] [मूलाचारे मूलगुणोत्तरगणानां च दर्शनज्ञानचारित्राणां शुद्धिविधानस्य च भिक्षाशुद्धेश्च सारभूतं स्तोकं वक्ष्येऽहमेकाग्रचित्तो भूत्वा शृण्ववधारय 'संक्षिप्तमर्थेन महान्तं ग्रन्थतोऽल्पं यथावृत्तं येन क्रमेणागतमथवा यथोक्त पूर्वशास्त्रेषु स्थितं यथा पूर्वाचार्यक्रमेणागतं तथा वक्ष्येऽहं न स्वेच्छया, अनेनात्मकर्त त्वं निराकृत्यानात्मकर्त त्वं स्थापितं भवतीति ॥८६४॥ समयो नाम सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि तेषाञ्च सारश्चारित्रं कुतो यस्मात् दव्वं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च संघडणं । जत्थ हि जददे समणो तत्थ हि सिद्धि लहुं लहइ ॥८६॥ द्रव्यं शरीरमाहारादिकं कर्मागमापगमकारणं च क्षेत्र निवासो वसतिकादि स्त्रीपशुपाण्डकविजितवैराग्यवद्ध नकारणस्थानं कालोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपश्चैकोऽपि षड्विधः सुषमासुषमादिभेदेन तथा शीतोष्णवर्षाकालादिभेदेन त्रिविक्षः, भावः परिणामः, चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थस्तेनान्यदपि कारणं शुद्धचारित्रस्य माद्यं, पडुच्च-आश्रित्य स्वभावमनुबुध्य, संघडणं-संहननं अस्थिबंधबलोद्भुतशक्ति वीर्यान्तरायक्षयोपशमं वा । यत्र ग्रामेऽरण्ये द्वीपे समुद्र पर्वते भोगभूमिकर्मभूमिक्षेत्रे वा ज्ञाने दर्शने तपसि वा यतते सम्यगाचरति सम्यक् अंग और चौदह पर्वो का सार है, मूलगुण-उत्तरगुणों का, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का, शद्धिविधान का और भिक्षाशुद्धि का सारभूत है। यह ग्रन्थ से-शब्दों में अल्प होते हुए भी अर्थ से महान् है अतः संक्षिप्त है, जिस क्रम से आया हुआ है अथवा जैसे पूर्वाचार्य परम्परा से आगत या पूर्व शास्त्रों में कथित है वैसा ही मैं कहूँगा, अपनी इच्छा से कुछ नहीं कहूँगा। इस कथन से आचार्य श्री ने 'अपने द्वारा किया गया है' इस आत्मकत त्व का निराकरण करके इस ग्रन्थ को अनात्म कर्तृत्व अर्थात् सर्वकर्तृत्व स्थापित किया है, ऐसा समझना। सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र और तप का नाम समय है और इनका सार चारित है। क्यों! सो ही बताते हैं गाथार्थ-श्रमण जहाँ पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके उद्यम करते हैं वहाँ पर सिद्धि को शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं । ।।८६५।। प्राचारवृत्ति-द्रव्य–शरीर और आहार आदि जो कि कर्मों के आने और रोकने में कारण हैं। क्षेत्र-वसतिका आदि निवास, जोकि स्त्रो, पशु, नपुंसक आदि से रहित एवं वैराग्य वर्द्धन के कारणभूत स्थान हैं। काल- अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप से एक होते हुए भी जो सुषमासुषमा आदि के भेद से छह प्रकार का हो जाता है तथा शीत, उष्ण और वर्षा आदि के भेद से तीन प्रकार का भी होता है। भाव-परिणाम । 'च' शब्द से अनुक्त का भी समुच्चय कर लेना, इसलिए शद्ध चारित्र के लिए अन्य जो भी कारण हैं उन्हें यहाँ ग्रहण कर लेना चाहिए। संहननहड्डियों की बन्धन और बल से उत्पन्न हुई शक्ति, अथवा वीर्यान्त राय कर्म का क्षयोपशमविशेष । समता, एकत्व भावना और वैराग्य आदि के आधारभूत श्रमण जिस किसी ग्राम, वन १. द.क. संक्षेपं। २. ८० क० निराकृत्याप्तकर्त त्वं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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