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समयसाराधिकारः]
भवेत्तथा निरारम्भ आरंभान्निर्गतः स्यात्तथा त्यक्तकषायः क्रोधमानमायालोभादिरहितस्तथा त्यक्तपरिग्रहोऽथवा त्यक्तः कषायः परिग्रहो येनासौ त्यक्तकषायपरिग्रहो भवेत्तया प्रयत्नचेष्ट: सर्वथा प्रयत्नपरो भवेत्तथाऽसंगः संगं केनाऽपि मा कुर्यात्सर्वथा संगविवजितो भवेदिति ।।८६८।। पुनरपि मुख्यरूपेण चारित्रस्य प्राधान्यं न श्रुतस्य यतः--
थोवह्मि सिक्खिदे जिणइ बहसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो पुण चरित्तहीणो कि तस्स सुदेण बहुएण ॥६॥ स्तोकेऽहि शिक्षिते पंचनमस्कारमात्रेऽपि परिज्ञाते तस्य स्मरणे सति जयति बहश्रतं दशपूर्वधरमपि करोत्यधः यश्चारित्रसंपन्नो यो यथोक्तचारित्रेण युक्तः, य: पुनश्चारित्रहीन: कि तस्य श्रुतेन बहुना । यतः स्तोकमात्रेण श्रतेन संपन्नः सन् बहुश्रुतं जयति तपश्चारित्रं प्रधानमत्र ज्ञानस्य दर्शनस्य तपसोपि यतो हेयोपादेयविवेकमन्तरेण श्रद्धानमन्तरेण च सम्यकचारित्रं न यूज्यते ततः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्यनेन सह न विरोध इति ॥६६॥
चित्त होओ । सर्व आरम्भ से रहित होओ। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से तथा परिग्रह से रहित होओ अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह को छोड़ो, अथवा कषायरूपी परिग्रह से रहित होओ। सर्वथा सावधानीपूर्वक क्रियाएँ करो तथा किसी के साथ भी संगति मत करो।
पुनरपि यह बताते हैं कि मुख्य रूप से चारित्र ही प्रधान है न कि श्रुतज्ञान, क्योंकि
गाथार्थ--जो चारित्र से परिपूर्ण है वह थोड़ा शिक्षित होने पर भी बहुश्रुतधारी को जीत लेता है किन्तु जो चारित्र से रहित है उसके बहुत से श्रुत से भी क्या प्रयोजन ? |८६६ ।
__ आचारवत्ति-जो यथोक्त चारित्र से सम्पन्न मुनिराज हैं वे थोड़ा भी शिक्षित होकर अर्थात् पंचनमस्कार मन्त्र मात्र का भी ज्ञान रखने और उस मन्त्र का स्मरण करने से ही दशपूर्वधारी मुनि को भी नीचे कर देते हैं। किन्तु जो चारित्र से हीन हैं उन्हें अधिक श्रुत से भी क्या लाभ? अर्थात् उन्हें मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती है। जिस हेतु ये अल्पमात्र भी श्रुत से सम्पन्न होकर बहुश्रुतधारी मुनि को जीत लेते हैं उसी हेतु यहाँ ज्ञान, दर्शन और तप में भी चारित्र ही प्रधान है। क्योंकि हेयोपादेय विवेक के बिना और श्रद्धान के बिना सम्यक्चारित्र होता ही नहीं है। इसलिए "सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं" इस सूत्र के साथ विरोध नहीं आता है।
भावार्थ-यहां पर ऐसा कथन था कि चारित्रधारी मुनि भले ही णमोकार मन्त्र मात्र के ही जानकार हों किन्तु वे मोक्षप्राप्ति के अधिकारी हैं तो प्रश्न यह उठता है कि पुनः रत्नत्रय से मोक्ष मानना कहाँ रहा ? सो ही उत्तर दिया गया है कि श्रद्धान के बिना चारित्र सम्यक्चारित्र नहीं कहलाता है और उस श्रद्धान के साथ जितना भी ज्ञान का अंश है वह सम्यक्ज्ञान ही है अतः रत्नत्रय से ही मोक्ष की व्यवस्था है, अन्यथा नहीं है, ऐसा समझना।
१.क० मा कृथाः।
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